भारत में धर्मनिरपेक्षता Essay – हिंदी में पूरा निबंध

भारत में धर्मनिरपेक्षता

Secularism in India: Reality and Friends / भारत में धर्मनिरपेक्षता Essay : यथार्थ और मित्र | भारत में धर्मनिरपेक्षता पर हिंदी निबंध | धर्मनिरपेक्षता Full Essay in Hindi 2019


आधार बिंदु : भारत में धर्मनिरपेक्षता Essay

  1. धर्म-निरपेक्षता : भारतीय राजनीति का चर्चित मुद्दा
  2. धर्म-निरपेक्षता की अवधारणा
  3. स्वतंत्रता आंदोलन और धर्म-निरपेक्षता
  4. संविधान और धर्म-निरपेक्षता
  5. भारत में धर्म-निरपेक्षता की समस्या
  6. भारतीय राजनीति का धर्म-निरपेक्ष चेहरा
  7. धर्म-निरपेक्षता : एक चुनौतीपूर्ण व्यवहार

धर्म-निरपेक्षता : भारतीय राजनीति का चर्चित मुद्दा : भारत में धर्मनिरपेक्षता Essay

भारतीय संस्कृति के हज़ारों वर्षों के सोच एवं व्यवहार में ईश्वर और आध्यात्मिकता केंद्रीय विषय रहे हैं और राजनीति से धर्म भी किसी-न-किसी रूप में जुड़ा रहा है। इसलिए स्वतंत्र भारत के संविधान में जब से धर्म-निरपेक्षता’ (अर्थात् पंथ-निरपेक्षता) का समावेश किया गया है तभी से यह विषय व्याख्यानों विवादों एवं टकराहटों का रहा है। भारत के इतिहास में अनेक धर्मावलंबी शासकों का शासन रहा है और उन्होंने राजशक्ति के बल पर भारत के मूल निवासियों के धार्मिक जीवन में दखल देने का भी प्रयास किया है। इसके साथ ही देश का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ है। स्वतंत्रता के बाद इस स्थिति के बावजूद कि भारत में बहुसंख्यक हिंदू एवं अल्पसंख्यक मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध आदि का सद्भाव से रहते रहे हैं अयोध्या में राम मंदिर-बाबरी मस्ज़िद जैसे प्रकरणों के बहाने हमारे यहाँ ‘गोधरा कांड’ होते रहे हैं। इसलिए भारतीय इतिहास की उसके वर्तमान के साथ निरंतर होती रही टकराहट के कारण भारत की जनता एवं राजनीति दोनों में धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा बराबर विचारणीय रहा है तथा आगे और भी अधिक रहेगा विचारणीय मुद्दा यह है कि विभिन्न धर्मावलंबियों वाला समाज और उस पर टिकी राजनीति इस धर्मनिरपेक्षता के उलझाव से क्यों कर निकले और कैसे निकले

धर्म-निरपेक्षता की अवधारणा : भारत में धर्मनिरपेक्षता Essay

धर्म-निरपेक्ष दृष्टिकोण मनुष्य के जीवन के विभिन्न पक्षों के बीच धर्म का कोई संबंध नहीं रखता। इसी संदर्भ में धर्मनिरपेक्ष राज्य का आशय एक ऐसे राज्य से है जो अपने संचालन में धर्म से कोई वास्ता नहीं रखता। प्रो. डोनाल्ड स्मिथ ने. ‘India as a Secular State’ में धर्म निरपेक्ष राज्य का आशय स्पष्ट करते हुए लिखा है कि-धर्म निरपेक्ष राज्य व्यक्तिगत एवं सामूहिक आधार पर अपने नागरिकों को धर्म की स्वतंत्रता देता है, व्यक्ति के प्रति इसका ‘दृष्टिकोण इस तथ्य पर आधारित होता है कि वह राज्य का एक नागरिक होता है न कि इस पर कि वह किस धर्म से संबंधित है; संवैधानिक रूप से यह किसी धर्म विशेष से संबंधित नहीं होता और न ही किसी धर्म विशेष को प्रोत्साहित करने के लिए अथवा अवरुद्ध करने के लिए प्रयास करता है। इस प्रकार धर्मनिरपेक्ष राज्य प्रत्येक नागरिक को व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप से किसी भी धर्म को अपनाने की स्वतंत्रता तो देता है किंतु राज्य धार्मिक आधार पर नागरिकों के बीच कोई भेदभाव नहीं रखता तथा राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होता और किसी भी धर्म के प्रसार अथवा अवरोध में सहयोगी नहीं होता।

स्वतंत्रता आंदोलन और धर्म-निरपेक्षता : भारत में धर्मनिरपेक्षता Essay

भारतीय संविधान ने अपनी अन्यान्य संकल्पनाओं की तरह धर्म-निरपेक्षता की संकल्पना को भी यूरोप से ग्रहण किया। धार्मिक आधार पर देश के विभाजन के बावजूद भारत में अनेक धर्मों के धर्मावलंबी होने के कारण बिना किसी भेदभाव के सभी को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करना भारतीय संघ का एक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य था। इसलिए अंग्रेज़ों की फूट डालो और शासन करो की नीति के विरुद्ध, धार्मिक परिवेश से परे राज्य को धर्मनिरपेक्ष स्वरूप देना आवश्यक था। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान भारत के प्रमुख नेता गैर-सांप्रदायिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते रहे। अंग्रेज़ों ने मुस्लिम लीग आदि कुछ फ़िरकों को प्रोत्साहन देकर हमारे स्वतंत्रता आंदोलन को कमज़ोर करने की कोशिश की, उन्होंने मुस्लिम लीग से मिलकर दो राष्ट्रों का सिद्धांत उछाला तथा सांप्रदायिक आधार पर ब्रिटिश सरकार ने पहले मुसलमानों को, फिर अन्य वर्गों को, विशेष सुविधाएँ दीं और अंत में देश का विभाजन करवा दिया । भारत में धर्म एवं सांप्रदायिक विभेद के सर्वप्रथम कारण अंग्रेज़ ही थे लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन ने कभी भी इस धर्म-आधारित राजनीति को स्वीकार नहीं किया। इसलिए आज़ादी के बाद संविधान ने राज्य को निर्विवाद रूप से धर्म-निरपेक्ष स्वरूप प्रदान किया। हमारे संविधान में धर्म-निरपेक्ष राज्य का अर्थ लौकिक भी है और असांप्रदायिक भी अर्थात् राज्य अपने कार्य को गैर-धार्मिक मसले तक सीमित रखेगा तथा सांप्रदायिक भेदभाव से भी बचेगा।

संविधान और धर्म-निरपेक्षता : भारत में धर्मनिरपेक्षता Essay

भारतीय संविधान में अनेक ऐसे उपबंध हैं जो प्रत्यक्ष रूप से तथा परोक्ष रूप से धर्म निरपेक्षता से संबंधित हैं। संविधान के बयालीसवें संविधान संशोधन अधिनियम (1976) में ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द का उल्लेख भी किया गया है। अनुच्छेद 15-16 के अनुसार प्रत्येक नागरिक को बिना किसी धार्मिक भेदभाव के समान अधिकार प्राप्त हैं। अनुच्छेद 25 के अनुसार प्रत्येक नागरिक को उपासना की समान स्वतंत्रता तथा धर्म का व्यवहार करने, शिक्षा देने तथा प्रचार करने की स्वतंत्रता है। अनुच्छेद 26 के अनुसार किसी भी धार्मिक मत को धार्मिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए संस्थाओं की स्थापना करने तथा चल-अचल संपत्ति क्रय करने का अधिकार है । अनुच्छेद 27 के अनुसार किसी भी नागरिक को किसी विशेष धार्मिक मत के प्रसार हेतु कर देने के लिए बाधय नहीं किया जा सकता। अनुच्छेद 28 के अंतर्गत राज्य द्वारा किसी भी शैक्षणिक संस्था में अनिवार्य धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती तथा अनुच्छेद 325 के अंतर्गत धर्म के  आधार पर निर्वाचन क्षेत्रों को समाप्त किया गया है। इस प्रकार भारतीय संविधान के उपर्युक्त उपबंधों के अनुसार भारतीय धर्मनिरपेक्षता की तीन प्रमुख प्रवृत्तियाँ स्पष्ट होती हैं-1) यह उदारवादी है तथा सभी नागरिकों को समान नागरिकता एवं समानता का अधिकार देता है, साथ ही अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकारों की रक्षा के लिए पृथक् उपबंध भी रखे गए हैं; (2) भारतीय धर्मनिरपेक्षता पूर्णतः निरपेक्ष न होकर इस रूप में सापेक्ष भी है कि धार्मिक स्वतंत्रता को सामाजिक व्यवस्था के रूप में प्रतिबंधित किया जा सकता है, तथा (3 ) भारतीय धर्मनिरपेक्षता निरंतर गतिशील है क्योंकि यह धर्म को राज्य के कार्यों में हस्तक्षेप करने के लिए प्रतिबंधित करती है जबकि सामाजिक कल्याण की दृष्टि से राज्य इसमें हस्तक्षेप कर सकता है। वस्तुत: राज्य को किसी भी धार्मिक मत के व्यक्तिगत क़ानून को बदलने का अधिकार प्राप्त है।

भारत में धर्मनिरपेक्षता Essay

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भारत में धर्म-निरपेक्षता की समस्या : भारत में धर्मनिरपेक्षता Essay

स्वातंत्रयोत्तर भारत में साम्प्रदायिक विद्वेष को समाप्त करने में हम असफल रहे हैं। विभिन्न धर्मों के बीच समय-समय पर छिड़ने वाले विवादों को राजनीति ने उलटा तूल ही दिया है तथा भारतीय संविधान की भावना के विपरीत ही कार्य किया है। भारत के आम चुनाव सांप्रदायिक भेदभाव के आधार पर लड़े जाते हैं, संप्रदाय विशेष के मतदाता को देखकर रोजनीतिक दलों के द्वारा अपने प्रतिनिधि खड़े किए जाते हैं, यहाँ तक कि परोक्ष रूप से वैसा ही प्रचार भी किया जाता है। इसी तरह राज्य द्वारा विभिन्न संप्रदायों को दी जाने वाली सहायता को भी राजनीतिक तुष्टीकरण का माध्यम बनाया गया है। राजनीतिज्ञों ने सांप्रदायिक भेदभाव को राजनीतिक शोषण का ज़रिया बनाया । इसलिए संविधान में उल्लिखित धर्म-निरपेक्षता भारत के राजनीतिक एवं सामाजिक जीवन में असर नहीं कर सकी। यद्यपि भारत की न्यायपालिका ने सक्रिय भूमिका निभाकर भारत में धर्मनिरपेक्षता को पुन: परिभाषित कर अपने दायित्व का निर्वहन किया है। मार्च, 1993 को अपने दिए गए फैसले में सर्वोच्च न्यायालय की नौ सदस्यीय पीठ ने धर्मनिरपेक्षता को भारतीय संविधान की आधारभूत विशेषता मानते हुए निर्णय दिया कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धर्म के प्रति विद्वेषपूर्ण होना नहीं है, बल्कि यह है कि राज्य विभिन्न धर्मों के संबंध में तटस्थ रहेगा; यदि राजनीतिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए राजनीतिक दलों द्वारा धर्म का उपयोग किया जाता है तो इससे दोनों की तटस्थता का उल्लंघन होगा। 2012 प्रदेश कुछ राजनीतिक दलों के उत्तर विधानसभा के चुनावों के पहले द्वारा मुसलमानों को आरक्षण देने के प्रावधानों को उच्च न्यायालय ने संविधान-विरुद्ध मानकर निरस्त किया है। इस प्रकार न्यायालय ने राज्य एवं राजनीतिक दल दोनों से धर्म -निरपेक्षता की अवधारणा को व्यवहार में अपनाने अपेक्षा की है।

भारतीय राजनीति का धर्म-निरपेक्ष चेहरा : भारत में धर्मनिरपेक्षता Essay

वस्तुत: जब-जब राजनीतिक दल अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति में भेदभाव का जनता का भावनात्मक शोषण करते हैं यद्यपि तब-तब धर्म-निरपेक्षता घायल होती जाती है । यह व्यावहारिक कठिनाई है कि हमारे देश में धर्म व्यक्ति के वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन के इतनी निकटता से जुड़ा हुआ है कि कोई भी राजनीतिक दल या राजनेता अपने न केवल यक्तिगत मान्यता में बल्कि सार्वजनिक व्यवहार में भी धर्म से विमुख नहीं हो सकता और होना भी नहीं चाहता । दरअसल पिछले पचास वर्षों में भारतीय समाज में सांप्रदायिक शक्तियों ने अपने-आपको बहुत मजबूती से संगठित कर लिया है जो वस्तुतः शिक्षा एवं लोकतांत्रिक चेतना के प्रसार की कमी तथा सामाजिक एवं आर्थिक प्रगति के मन्द होने के कारण है। भारतीय समाज का आधुनिकीकरण जिस तीव्र गति से, मानव हित को केंद्र में रखते हुए, अपेक्षित था, वह नहीं हो सका, इसलिए भारतीय राजनीति सांप्रदायिकता के आगे न केवल झुकती रही बल्कि उसको ललचाती भी रही। एक धर्म-निरपेक्ष समाज की रचना धर्मनिरपेक्ष राज्य की पूर्व शर्त है जबकि सामाजिक स्तर पर धर्म-निरपेक्षता को न अपनाकर सांप्रदायिकता को सम्बल दिया जाता है। इसलिए धर्मनिरपेक्षता हमारे व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में, और फलस्वरूप राजनीतिक जीवन में भी, अभी भी दूर की कौड़ी है।

धर्म-निरपेक्षता : एक चुनौतीपूर्ण व्यवहार : भारत में धर्मनिरपेक्षता Essay

भारत में धर्म-निरपेक्षता स्थापित करना कठिन कार्य है लेकिन इस कठिन कार्य को भारतीय जनता के हित में आम जनता द्वारा सामाजिक संगठनों द्वारा, सरकारी एवं गैर-सरकारी संगठनों द्वारा परस्पर समन्वय के साथ करना चाहिए। पूरे देश में धर्म से संबंधित एक ही प्रकार की शिक्षा हो, धर्म की सार्वजनिक अभिव्यक्ति को हतोत्साह किया जाए तथा राजनीतिज्ञों द्वारा अपने धार्मिक व्यवहारों को प्रोत्साहन की वस्तु न बनाया जाए। जिस प्रकार हमने लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को तो अपनाया; किंतु आज़ादी के बाद सातवें दशक में चल रहे शासन काल के बाद भी हम अनेक अलोकतांत्रिक स्थितियों को प्रक्रियाओं के बीच जी रहे हैं। और लोकतंत्र को प्राप्त करने का निरंतर संघर्ष कर रहे हैं, उसी प्रकार हमने अपने संविधान में धर्म-निरपेक्षता को अपनाया है और जब-जब धार्मिक एवं सांप्रदायिक संकीर्णता तथा भेदभाव का व्यवहार अपनाया है तो भारतीय न्यायपालिका, भारतीय प्रशासन तथा कुछ राजनीतिक दलों एवं राजनेताओं के प्रबुद्ध व्यवहार के द्वारा धर्मनिरपेक्षता के विरोध में उठने वाले झंझावातों के विरोध का शमन भी किया गया है। इस तरह हमने स्वतंत्रता काल में धर्म-निरपेक्षता की प्रक्रिया को आगे भी बढ़ाया है। निश्चय ही भारतीय समाज में आधुनिकता की प्रक्रिया के साथ-साथ धर्मनिरपेक्षता का स्वरूप भी निखरता जाएगा तथा व्यक्ति को एक धर्म एवं संप्रदाय के चोले में न देखकर एक इंसान के रूप में देखने की हमारी दृष्टि को हम क्रमशः साफ़ करते जाएँगे।

भूमंडलीकरण के इस दौर में एक ओर वैश्विक संस्कति की ओर उन्मुख होने के लिए हमें धर्म निरपेक्ष दृष्टि अपनानी ही चाहिए, दूसरी ओर धार्मिक कट्टरता से उभर रहे आतंकवाद एवं धार्मिक संकीर्णता पर टिकी हुई राजनीति के अभिशाप से बचने हेतु भी धर्मनिरपेक्षता का विचार अपरिहार्य है। पश्चिम के आर्थिक शोषण से बचने तथा अपनी विकास प्रक्रियाओं को तीव्रगामी करने के लिए भी देश में धार्मिक सदभाव ज़रूरी है जो धर्मनिरपेक्ष अवधारणा को सद्ध करने से ही संभव है । वस्तुत: आधुनिक शिक्षा प्राप्त युवा पीढ़ी से अपेक्षा है कि वह धर्मनिरपेक्षी बने और अपने भीतर सर्व धर्म समभाव वाले इंसान को निर्मित करे।

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