इक्कीसवीं सदी का भारत – ‘स्वराज’ से ‘दूसरी आजादी’

इक्कीसवीं सदी का भारत – Essay 

From Swaraj to Second Freedom: India of the 21st Century /’स्वराज’ से ‘दूसरी आजादी’ तक : इक्कीसवीं सदी का भारत  – Full Essay in Hindi |


आधार-बिंदु :
1. समता आधारित आर्थिक संपन्नता
2. स्वच्छ, ईमानदार राजनीति
3. संवेदनशील, लोक-समर्पित नौकरशाही
4. समता आधारित समाज व्यवस्था
5. सबको सार्थक शिक्षा
6. सबला सहभागिनी नारी का समाज
7. उपसंहार

समता आधारित आर्थिक संपन्नता : इक्कीसवीं सदी का भारत

इक्कीसवीं सदी का अर्थ है- एक सपना, नए भारत का सपना । हम 20वीं सदी में अंग्रेजों के साम्राज्यवाद से मुक्त हुए, सामाजिक क्षेत्रों में मध्यकालीन विषमताग्रस्त समाज व्यवस्था को झकझोर कर उसमें समता स्थापित करने की कुछ उपाय शुरू किए, आर्थिक क्षेत्र में हम मध्यकालीन अर्थव्यवस्था को धक्का देकर पक्श्चिमी ढाँचे की आधुनिक अर्थव्यवस्था को बदलने के कार्य में जुटे । संस्कृति के क्षेत्र में हमने अपनी परंपरा की खोज करने, उसको प्रासंगिक बनाने की आवाज उठाई और उदारीकरण एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के द्वारा हम ‘विश्व गांँव’ के एक मोहल्ले के रूप में अपने आपको पहचान पाए । भारत की 20वीं सदी मूलतः अपने-आपकी फिर से पहचान करने की सदी है, अपनी परंपरा के सामर्थ्य को फिर से तलाशने तथा उसको आधुनिकता के साथ जोड़ने के क्रम में जूझने की सदी है । हम इस कार्य में कुछ सफल हुए हैं तो बहुत-कुछ असफल भी हुए हैं, यहांँ तक कि भटके भी हैं । बीसवीं सदी के शुरू में हमें गांधी जैसा नेतृत्व मिला तो अंतः तक पहुंचते पहुंचते हम उसको भुला भी बैठे । 20वीं यदि में हमने ‘स्वराज’ का नारा लगाया और मध्य तक पहुंचते पहुंचते स्वतंत्र भी हुए; किंतु सदी के अंत तक पहुंँचते-पहुंँचते पुनः भूमंडलीकरण के नाम पर फिर विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं के नीचे दबने लगे । इस प्रकार 20वीं सदी से हमें जो कुछ मिला है उस पर पुनर्चिंतन करने और उसका पुनर्निर्माण करने का संकल्प कर एक ‘दूसरी आजादी’ प्राप्त करना ही हमारे लिए 21वीं सदी के मायने हैं । You Read This Essay in Hindi on Lokhindi.com
बीसवीं सदी ने हमको हमारी आर्थिक विपन्नता से खूब परिचित कराया है । फिर भी हम गरीबी की रेखा से नीचे गुजर कर रहे 26% लोगों को तो 21वीं सदी में ले आए हैं । हमारे तमाम आर्थिक विकास के सपने क्या हम कोई ऐसा ‘नया’ आर्थिक ढांचा खड़ा कर सकेंगे जो उन 26% लोगों को आर्थिक खुशहाली दे सके जो अभी तक भी पिछड़े हुए है तथा हमारी नौ पंचवर्षीय योजनाओं की असफलताओं के शर्मनाक प्रमाण है । क्या हम ऐसी अर्थव्यवस्था को पूनर्निर्मित कर सकेंगे जो थोड़ी पूंँजी और देशी तकनीक के द्वारा भी ‘सब’ लोगों को संपन्नता के घेरे में ला सके । जो विकास के साथ साथ शोषण से भी मुक्ति दिलाए, जो काले धन और भ्रष्टाचार से परे एक ईमानदार, सर्वोदयी व्यवस्था का निर्माण करें ।
हमारी गरीबी का एक कारण बढ़ती हुई जनसंख्या भी है । हम 1901 में 23.83 करोड थे और अब तक 140 करोड हो रहे हैं अर्थात 4 गुने से अधिक, जबकि भौतिक संसाधन हमारे स्थिर हैं । हमारी यही गति रही तो हम 2040 में चीन से भी अधिक जनसंख्या के देश बन जाएंगे क्योंकि हम प्रतिवर्ष 2.14 प्रतिशत की गति से बढ़ते जा रही है । यदि 21वीं सदी में हमें दुनिया में सम्मान के साथ जीना है तो जनसंख्या को अत्यंत सीमित रखने के संकल्प के साथ जीना होगा .

स्वच्छ, ईमानदार राजनीति : इक्कीसवीं सदी का भारत

20वीं सदी में हमने गांँधी के मुंह से धर्म अर्थात उत्कृष्ट नैतिक मूल्योंवाले आचरण पर आधारित राजनीति की बात सुनी थी जिसको हम बीसवीं सदी के अंत तक आते-आते स्वयं राजनेताओं के द्वारा अरबों रुपयें के घोटालों, हवाला कांडों, शेयर, चारा, चीनी, लॉटरी, स्टांप पेपर घोटालों आदि में बदल कर रख दिया है । चुनाव को खर्चीला बनाकर हमने ईमानदार आम नागरिक को जन-प्रतिनिधि होने के दायरे से बाहर कर दिया है । आज हम लोकतंत्र के नाम पर भ्रष्ट एवं अपराधियों के द्वारा शासित होने के लिए विवश हो गए हैं । क्या इस 21वीं सदी में भी हम अपराधियों से घिरी हुई विधानसभाओं और संसद के ढोते रहेंगे ? क्या हम कम खर्चीली चुनाव प्रक्रिया द्वारा ईमानदार, योग्य, सेवाभावी, जनप्रतिनिधियों के द्वारा लोकतंत्र का संचालन कर सकेंगे ?

संवेदनशील, लोक-समर्पित नौकरशाही : इक्कीसवीं सदी का भारत

बीसवीं शताब्दी में हमने आजादी तो प्राप्त की, किंतु नौकरशाही के ढांँचे में कोई खास परिवर्तन नहीं किया और इस प्रकार प्रशासन में हमने सामंतवादी एवं साम्राज्यवादी तौर तरीकों को अपनाए रखा । क्या हम 21वीं सदी में एक लोकतांत्रिक नौकरशाही को रच सकेंगे जो सचमुच जनता के सेवक हो, जनता की सहभागिता को बढ़ाकर, उसके साथ मिल-जुलकर लोक-विकास के उद्देश्य के प्रति समर्पित हो ? क्या हम 21वीं सदी में पंचायतीराज व्यवस्था के ढांँचे में प्राण फूँककर उसे वास्तविक विकेंद्रित लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के रूप में नया जीवन दे सकेंगे ?

समता आधारित समाज व्यवस्था :इक्कीसवीं सदी का भारत

बीसवीं सदी में हमने वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था के विरुद्ध आंदोलन उठाए, हरिजनों के लिए मंदिरों के दरवाजे खोले, छुआछूत को दूर करने के लिए कानून बनाए; किंतु बीसवीं सदी तक पहुंँचते पहुंँचते हमने राजनीति में, प्रशासन में जाति-आधारित आरक्षण का पूरा दुरुपयोग किया, जाति और संप्रदाय के आधार पर चुनाव लडे़, जीते और हारे । जाति और वर्ण को समाजिक एवं राजनीतिक भेदभाव का ज़रिया बनाया और इस प्रकार इन मृतप्राय : संस्थाओं का जमकर दुरुपयोग किया । क्या 21वीं सदी में हम जाति वर्ण संप्रदाय से रहित एक ऐसे भारतीय समाज का निर्माण कर सकेंगी जो इन सबसे परे मानव मात्र को केंद्र में रखता हो । सामाजिक दृष्टि से वास्तविक रूप में जो पिछड़ा हो उसकी तो हम विशेष रूप से मदद करें किंतु आरक्षण व्यवस्था को कुछ चंद संपन्न व्यक्तियों को और संपन्न बनते जाने का माध्यम न बनने दें, आरक्षण को लेकर समाज में द्वेष और भेदभाव को न पनपने दें और एक जाति, वर्ण एवं संप्रदाय रहित सामाजिक व्यवस्था बनाएँ ।

‘स्वराज’ से ‘दूसरी आजादी’ तक – Essay

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सबको सार्थक शिक्षा : इक्कीसवीं सदी का भारत

बीसवीं शताब्दी ने सामाजिक विकास में शिक्षा को महत्वपूर्ण स्थान दिया । विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय खोले तथा लगभग पश्चिमी ढाँचे के स्थूल रुप का अनुकरण कर एक शिक्षा व्यवस्था स्थापित की । सन् 1937 में गांधी जी द्वारा प्रस्तावित ‘बुनियादी शिक्षा’ से हमने पल्ला छुड़ा लिया, रविंद्रनाथ ठाकुर द्वारा स्थापित ‘शांति निकेतन’ की सहज, सृजनशील शिक्षा व्यवस्था से हम दूर चले गए । हमने काफी लोगों को पढ़ाया लेकिन जिनको पढा़या उनको वास्तव में जिंदगी से अलग-थलग कर दिया और काफी लोगों को तो हमने पढ़ने से पहले ही स्कूल से बाहर कर दिया और काफी लोगों को तो हमने स्कूल में प्रवेश ही नहीं दिया । इस प्रकार 20वीं सदी में हम शिक्षा प्राप्त करने संबंधी हमारे प्रत्येक नागरिक के आधारभूत अधिकार की सुरक्षा नहीं कर पाए । हम अभी भी करोड़ों लोगों को 21वीं सदी में निरक्षर ही ले जाएंँगे जो 21वीं सदी का सूरज हमारे देश के माथे पर निरक्षरता का सबसे बड़ा कलंक देखेगा । क्या 21वीं सदी में हम न केवल एक कलंक से शीघ्र ही बचने का, अर्थात सबको साक्षर करने का अपना संकल्प वास्तव में क्रियान्वित कर पाएंगे । क्या हम हर 6 से 14 वर्ष के बच्चे को अनिवार्य रूप से प्राथमिक शिक्षा देकर उस बच्चे के अधिकार ज्ञान प्राप्त करने की मुख्य धारा से जोड़ पाएंँगे । इसके अलावा क्या हम रटी-रटाई, जीवन से अलग-थलग, अव्यावहारिक, नीरस शिक्षा व्यवस्था के स्थान पर जीवन से जुड़ी हुई, उसको स्वावलंबी बनाकर मुक्त करने वाली, पूरे देश को सीखने-सिखानेवाले समाज में बदलने वाली शिक्षा व्यवस्था दे पाएंँगे ?

सबला सहभागिता समाज : ‘इक्कीसवीं सदी का भारत

19वीं शताब्दी के हमारे पुनर्जागरण से ही हमने भारतीय समाज में नारी की दुरवस्था को पहचानना शुरू किया था और 20वीं शताब्दी में हमने उसे कुछ अधिक किया । उसको सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक अधिकार दिए, संविधान में पुरुष के बराबर दर्जा देने का प्रयत्न किया, पंचायतों में एक-तिहाई स्त्रियों को सदस्य बनाया तथा विधानसभा एवं लोकसभा में भी एक-तिहाई महिला सदस्यों को चुनने जा रहे हैं । 20वीं सदी में कारखानों, विद्यालयों, दफ्तरों, बाजारों आदि में हमने महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाया है किंतु मादा बच्चों की भ्रूण हत्या तथा जन्म लेने के बाद भी जाने वाली हत्या, बढ़ती हुई दहेज प्रथा, बच्ची की कम होती हुई जन्म दर, शिक्षा और स्वास्थ्य में बालकों की तुलना में बालिकाओं की कमजोर स्थिति, महिलाओं पर बढ़ते जा रहे अत्याचार से यह स्पष्ट नजर आता है कि भारतीय समाज में पितृसत्तात्मक सत्ता का दमन अभी भी जारी है । यदि 20 वीं सदी हमने पुरुष-प्रधानता के साथ ही गुजारी है तो क्या हम 21वीं सदी में हमारी बालिकाओं को समानता के आधार पर पाल सकेंगे, शिक्षित कर सकेंगे, उनको रोजगार के साधन उपलब्ध करवा सकेंगे ? क्या हम स्त्रियों के लिए वर्जित माने जाने वाले कार्य क्षेत्रों में स्त्रियों की संख्या बढ़ा सकेंगे, दहेज प्रथा एवं कम होती जा रही बालिका जन्म दर से निजात पा सकेंगे ? क्या 21वीं सदी स्त्री और पुरुष दोनों की समता आधारित सदी हो सकेगी जिसमें दोनों समान रूप से, सहभागिता के साथ भाग लें और एक दूसरे के प्रति संवेदित होकर विकास में सहयोगी बनें ।

उपसंहार : इक्कीसवीं सदी का भारत

बीसवीं शताब्दी की दुपहर तक ब्रिटिश साम्राज्यवाद से घायल भारत और विभाजन के अपने अंगभंग से अब तक लहूलुहान भारत पिछली आधी शताब्दी में अपने पांवों पर खड़ा होने हेतु सक्षम हुआ है तथा दक्षिणी एशिया, जापान और यूरोप की अर्थव्यवस्थाओं में आई अलग-अलग स्तर की कंपन के बावजूद यह अपनी विकास की गति एवं मुद्रास्त्फीति को नियंत्रण में रख सका है तथा आर्थिक सुधारों के ‘दूसरे चरण’ (सैकेंड जनरेशन) की शुरुआत के साथ 21वीं सदी को दस्तक देने जा रहा है । यदि (और यह ‘यदि’ पूरी गंभीरता के साथ है) हम अपनी ‘राजनीतिक इच्छाशक्ति’ का बेहतर प्रदर्शन कर सके तो प्राकृतिक संसाधनों एवं मानव शक्ति से संपन्न यह भारत 21वीं सदी में निश्चित ही विश्व की ‘महाशक्ति’ बनकर उभर सकेगा । इक्कीसवीं सदी का भारत

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Written by lokhindi
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