आरक्षण Full Hindi Essay – आरक्षण पर निबंध हिंदी में

आरक्षण Hindi Essay

Reservation: Social Justice and Politics / आरक्षण Full Hindi Essay : सामाजिक न्याय और राजनीति | भारत में आरक्षण पर हिंदी निबंध |


आधार-बिंदु :

  1. भूमिका : ‘आरक्षण सामाजिक न्याय’ से ‘सामाजिक विखंडन’ की ओर
  2. भारतीय सामाजिक यथार्थ और आरक्षण
  3. आरक्षण और भारतीय संविधान
  4. स्वतंत्रता के पश्चात आरक्षण व्यवस्था का उपयोग-दुरुपयोग
  5. आरक्षण को लेकर जनता की स्वीकार्यता
  6. आरक्षण : सही क्रियान्वयन का सवाल
  7. आरक्षण व्यवस्था में परिवर्तन की दिशाएं
  8. उपसंहार : ‘नव सामाजिक न्याय’ को विकसित करने की जरूरत

भूमिका : ‘आरक्षण सामाजिक न्याय से ‘सामाजिक विखंडन’ की ओर :

संविधान निर्माताओं जिस आरक्षण को मात्र 10 वर्ष में ‘सामाजिक न्याय’ प्राप्त करने के एक अपरिहार्य साधन के रूप में कल्पित किया था वही पिछले छह दशक से अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों की तथा पिछले तीन दशकों से ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ की ‘वोट बैंक राजनीति’ का आधार बनता हुआ अब विधानसभाओं एवं लोकसभा के चुनावों में जातिगत भेदभाव वैमनस्य टकराहट और सामाजिक विखंडन का बवंडर बन चुका है। भविष्य में सीमित होती नौकरियों तथा असीमित रूप से बढ़ रही बेरोज़गारी के बीच चल रहे घमासान में ‘आरक्षण’ डूबते को तिनके का सहारा नज़र आ रहा है इसीलिए वर्तमान राजनीति ने इसे हवा देकर बिना आरक्षण के दुरुपयोग पर प्रतिबंध लगाए ‘अगड़ों’ को भी आरक्षण का लाभ देने का लालच देकर तथा आरक्षित वर्ग में ‘क्रीमी लेअर’ न अपनाकर (अजा एवं अजजा) या बहुत ऊँची अपनाकर (अपिव) सामाजिक न्याय के दर्शन और आरक्षण की अवधारणा को ही ध्वस्त कर दिया है। अत: भारतीय समाज के सामने अब चुनौती ‘सामाजिक न्याय के आधार पर सामाजिक समता स्थापित करने की कम और सामाजिक विखंडन से बचकर सामाजिक सामंजस्य प्राप्त करने की अधिक हो गई है।

भारतीय सामाजिक यथार्थ और आरक्षण : आरक्षण Full Hindi Essay

भारतीय पुनर्जागरण काल के दौरान भारतीय इतिहास का अनेक दृष्टियों से मंथन हुआ जिसमें से एक निष्कर्ष यह भी निकला कि भारत की लगभग एक हज़ार वर्ष की राजनीतिक गुलामी और आर्थिक विपन्नता का एक प्रमुख कारण भारतीय समाज में बनी जातिगत असमानता है। इस असमानता से भारतीय समाज संगठित नहीं हो पाया बल्कि एक-दूसरे को नीचा दिखाने में और अपनी-अपनी जातियों और उप-जातियों में सिमटते जाने से सामाजिक कलहों में उलझे रहे। सभी जातियों में प्रतिभा की विविधता के बावजूद एक ही जातिगत धंधे में बंधे रहने के कारण व्यक्ति का एवं समाज का समुचित के लिए 27% का प्रावधान हुआ और विकास भी नहीं हो पाया। इसलिए स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीय समाज-सुधारकों तथा राजनेताओं ने जातिगत कट्टरता को दूर करने के अनेक अभियान चलाए और अंततः संविधान में भी सामाजिक दृष्टि से पिछड़ी रही जातियों को आगे लाने के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की तथा आगे चलकर समता करने की दृष्टि से एक अत्यन्त वांछित एवं अपिव जो सामाजिक प्राप्त प्रगतिशील किंतु अब यह सामाजिक न्याय स्थापित करने के बजाय जातिगत शक्ति कदम था प्रदर्शन द्वारा राजनीतिक सत्ता हथियाने का मंच बन चुका है। इसलिए यह न केवल सामाजिक समता का बल्कि सामाजिक सामंजस्य के लिए चिंता का विषय है। You Read This आरक्षण Full Hindi Essay on Lokhindi.com

आरक्षण ओर भारतीय संविधान : आरक्षण Full Hindi Essay

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र को समानता और बंधुता से जोड़ने के इस प्रयास को महात्मा गाँधी ने ‘मेरे सपनों का भारत’ कहकर घोषित किया था। उन्होंने कहा था-‘ऐसा भारत जिसमें गरीब से गरीब भी यह समझेगा कि यह उसका देश है, जिसके निर्माण में उसका भी हाथ है।..वह भारत जिसमें सभी समुदाय पूर्णतया समरस होकर रहेंगे, ऐसे भारत में अस्पृश्यता के शाप के लिए…कोई स्थान नहीं होगा। स्त्री और पुरुष समान अधिकारों का उपभोग करेंगे।’ इसी पृष्ठभूमि में संविधान के अनुच्छेद 15 में समता को लेकर यह प्रावधान रखते हुए भी कि राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध धर्ममूलवंश, जातिलिंग, जन्मस्थान या इसमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा, इसी अनुच्छेद के खंड-4 में यह व्यवस्था है कि इस अनुच्छेद की अथवा अनुच्छेद 29 के खंड-2 की कोई नीति राज्य को सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति हेतु या अनुसूचित जातियों, जनजातियों के लिए कोई विशेष उपबंध करने से निवारित नहीं करेगी। साथ ही यह स्पष्ट किया है कि राज्य पिछड़े वर्गों के सदस्यों हेतु या अनुसूचित जातियों, जनजातियों के लिए सार्वजनिक संस्थाओं में स्थानों का आरक्षण कर या उन्हें शुल्क में रियायत दें।

अनुच्छेद 16(4) में उल्लेख है कि राज्य पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, पदों के आरक्षण के लिए उपबंध कर सकती है। इसके अलावा अनुच्छेद 339(1) में अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन राज्यों में अनुसूचित जातियों के कल्याण के बारे में प्रतिवेदन देने हेतु एक आयोग की नियुक्ति की व्यवस्था भी की गई जिसमें 1961 में श्री देबर ने 1980 में श्री .पी.बी मंडल ने अपने प्रतिवेदन दिए । श्री मंडल ने प्रतिवेदन की सिफ़ारिशों के आधार पर अगस्त 1990 में सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत स्थान आरक्षित करने की घोषणा की परिणामस्वरूप देश के स्वर्ण युवक-युवतियों द्वारा अपनी शैक्षिक डिग्रियाँ जलाने से लेकर आत्मह्त्या करने तक की अनेक घटनाए हुई तथा आरक्षण का मुद्दा विवाद का विषय बन गया।

आरक्षण पर जनमानस की तीव्र प्रतिक्रिया को देखते हुए नवम्बर, 1992 में उच्चतम न्यायालय की नौ सदस्यों की एक न्यायपीठ ने सरकार को निर्देश दिया कि वह पिछड़े वर्ग के आरक्षण के लिए एक आयोग स्थापित करे जो न्यायालय द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों के प्रकाश में पिछड़े वर्गों की पहचान करे, साथ ही यह भी स्पष्ट करे कि कुल 50 से अधिक आरक्षण नहीं हो तथा यह आरक्षण पिछड़े वर्ग के ‘क्रीमीलेयर’ अर्थात् सम्पन्न व्यक्तियों के लिए भी न हो। तदन्तर संसद ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग अधिनियम, 1993 पारित कर श्री आर.एन.प्रसाद की अध्यक्षता में एक आयोग की स्थापना की तथा सिफ़ारिशों के आधार पर केंद्रीय सरकार के अंतर्गत होने वाली भर्तियों में 27 प्रतिशत स्थान 9 नवम्बर, 1993 से पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षित कर दिए गए।

स्वतंत्रता के पश्चात् आरक्षण व्यवस्था का उपयोग-दुरुपयोग : आरक्षण Full Hindi Essay

संविधान में आरक्षण की व्यवस्था समाज में सामाजिक न्याय स्थापित करते हुए विधायिका, नौकरशाही एवं न्यायपालिका में सभी प्रकार के जाति-समूहों की समान सहभागिता बढ़ाने के उदेश्य से की गई थी परंतु वोटों के लालच में कोई भी राजनीतिक दल जातिगत सोच से ऊपर नहीं उठ सका तथा सामाजिक समानता प्राप्त करने का अस्त्र आरक्षण सामाजिक वैमनस्य का माध्यम बन गया। आरक्षण व्यवस्था के लागू करने में जो मुख्य कमियाँ रही हैं, वे इस प्रकार हैं – आरक्षण Full Hindi Essay

संविधान में आरक्षण के साथ-साथ समाज-सुधारकों, राजनेताओं एवं सरकारों को जातिगत सोच से ऊपर उठकर अस्पृश्यता, जातिगत भेद-भाव को समाप्त करने का सामाजिक आंदोलन चलाने की आवश्यकता थी; किंतु ऐसा न होकर राजनीतिक दलों ने जातिगत समीकरणों के आधार पर संसद, विधान सभा एवं पंचायतीराज संस्थाओं के लिए उम्मीदवार खड़े किए और वोट माँगे, राजनेताओं द्वारा जातिगत आधार पर खड़े किए गए संगठनों, शिक्षा संस्थाओं, होस्टलों, पूजास्थलों आदि को प्रश्रय दिया । लोगों को जातिगत आधार पर नाम रखने के लिए हतोत्साह एवं वर्जित नहीं किया गया, परिणामस्वरूप जातिगत भेदभाव जिस तीव्र गति से कम होना चाहिए था वह कम नहीं हुआ और इस जातिगत भेदभाव की विद्यमानता को बताकर सभी राजनीतिक दलों ने एक स्वर से आरक्षण की अवधि बढ़ाने के लिए संशोधन अधिनियम पारित किए।

आरक्षण Full Hindi Essay

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आरक्षण का उद्देश्य कमज़ोर जातियों को ऊपर उठाना था; किंतु आरक्षण का लाभ एक जाति के कुछ ही संपन्न परिवारों को अधिक मिला जो शैक्षणिक एवं आर्थिक दृष्टि से अधिक संपन्न थे। एक ही परिवार के अनेक लोगों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी आरक्षण का लाभ जागीर की तरह मिला; किंतु उसी जाति के अन्य जरूरतमंद लोग वंचित रह गए । इस प्रकार आरक्षण में सुविधाओं का बंद लोगों में केंद्रीकरण हो गया तथा जाति विशेष का अपेक्षित उन्नयन नहीं हो पाया। दरअसल असमानता (इनइक्वेलिटी) और असममिति (एसिमेट्री) का भेद ध्यान में रखना ज़रूरी है। अ-सममिति को मिटाने का अर्थ है आर्थिक, प्रशासनिक पिरामिड की हर समूहों को आनुपातिक प्रतिनिधित्व दिलाना, लेकिन सभी जातियों के नब्बे प्रतिशत लोगों का जीवन दूसरी तरफ़ की विषमताओं से अभिशप्त है। वस्तुतः इस विषमता को मिटाना ही देश की सबसे बड़ी चुनौती थी लेकिन पिछड़ों के नेतृत्व ने अपनी जातियों और देश के तमाम दरिद्रतम लोगों की मूल समस्या को नज़रन्दाज कर सहमति के विरुद्ध अपनी स्वार्थ पूर्ण टकराहट को ही सामाजिक न्याय के संघर्ष के रूप में प्रस्तुत किया। सामाजिक न्याय का वास्तविक उद्देश्य तो पूरी अर्थव्यवस्था के पिरामिडनुमा की बजाय समतामूलक बनाने से ही पूरा हो सकता है, ताकि लोगों के जीवन की स्थितियों में कम से कम अंतर रहे। पिछड़ों और दलितों के गिने-चुने लोगों के अभिजात वर्गों में भर्ती हो जाने से आधारभूत सुधार नहीं हो सकता। दलितों को आधी शताब्दी तक आरक्षण मिलने के बावजूद आम दलितों में व्याप्त ग़रीबी और बदहाली इस सच्चाई के स्पष्ट प्रमाण हैं। उच्चतम न्यायालय के ‘क्रीमीलेअर’ संबंधी विचार का जिस ज़ोरदार ढंग से पिछड़ों के नेताओं ने विरोध किया है तथा 1.5 लाख से 4.5 लाख होकर और ऊँची किए जाने की ओर है, वह भी इसका सबूत है। अत: आरक्षण के संदर्भ में सामाजिक न्याय की अवधारणा को स्वार्थवश सही रूप में अपनाया ही नहीं गया है।

आरक्षण का लाभ शिक्षा संस्थाओं में व्यक्तित्व के विकास के लिए दिया गया; किंतु आर्थिक अनुदान देने के साथ-साथ उनका उपयुक्त लाभ वह व्यक्ति उठा सके उसके लिए शिक्षण-प्रशिक्षण की ठोस व्यवस्था नहीं की गई, अतः वह आरक्षण एक आर्थिक अनुदान या प्रवेश में सुविधा बनकर रह गया। आरक्षण को व्यक्ति विशेष और जाति विशेष की सामर्थ्य के विकास के रूप में न देखकर राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उसका उपयोग करने के रूप में देखा गया । परिणामस्वरूप राजनेताओं ने अन्य अनारक्षित जातियों के प्रति सहज संवेदनशीलता पैदा करने के बजाय उनके प्रति विद्वेष पैदा करने का कार्य किया, अतः समाज में जातीय कलह की स्थिति बनती रही । वोटों को ध्यान में रखकर सरकारों ने ऐसी जातियों को भी पिछड़े वर्गों में शामिल किया जो सचमुच पिछड़ी हुई जाति नहीं हैं। इस प्रकार आरक्षण की यह व्यवस्था सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक दृष्टि से वंचित वर्ग के लिए अहितकर तथा उच्च, विकसित तथा समृद्ध जातियों के राजनीतिक वर्चस्व को बढ़ाने का साधन बन गई है।

आरक्षण को लेकर जनता की स्वीकार्यता : आरक्षण Full Hindi Essay

आरक्षण को इसके उद्देश्य की ईमानदारी से न जोड़ पाने के कारण आम जनता में इसकी स्वीकार्यता नहीं बनी। इसलिए सवर्ण जातियों का विरोध तो ऐसी व्यवस्था के प्रति शुरू से ही रहा; किंतु 1990 में मंडल आयोग की रिपोर्ट स्वीकार ने के समय तो छात्रों द्वारा आत्मदाह, प्रदर्शन, बसों एवं रेलों को जलाना, सरकारी संपत्ति की अपार क्षति, लाठी-चार्ज, गोली चलाना आदि सब हुआ तथा समाज में एक भूकंप-सा आ गया। अभी भी 50 प्रतिशत तक के आरक्षण को लेकर सव में पिछड़े समाज के प्रति संवेदनशीलता कम है तथा एक राजनीतिक षड्यंत्र के शिकार बनाने की भावना अधिक है। आरक्षण अब सामाजिक समता को स्थापित करने का साधन न बनकर अल्पसंख्यकों (मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध आदि) एवं जाति विशेष के लोगों को तुष्ट कर वोट प्राप्त करने का आधार बन गया है और इसमें कोई भी राजनीतिक दल पीछे नहीं है। इसलिए ईसाई धर्मावलंबी जो अपने धर्म में छुआछूत, ऊँच-नीच या भेदभाव नहीं मानते वे भी आरक्षण के पक्ष में हैं, बौद्ध धर्म स्वीकार करने वालों को तो ऐसी सुविधा दी भी गई है। मुस्लिम वर्ग के लोग भी आरक्षण की माँग उठा रहे हैं।

आरक्षण व्यवस्था में परिवर्तन की दिशाएँ : आरक्षण Full Hindi Essay

पिछली आधी शताब्दी में आई सामाजिक-आर्थिक जागरूकता के फलस्वरूप समाज के जातिगत शैक्षिक एवं आर्थिक संरचना में व्यापक परिवर्तन आया है। इसलिए इस सामाजिक यथार्थ को ध्यान में रखकर संपूर्ण भारतीय समाज के पुनरीक्षण की आवश्यकता है, जो एक स्वतंत्र आयोग गठित कर किया जा सकता है। आयोग के सुझावों के आधार पर बहुसंख्यक-अल्प संख्यक, अगड़े-पिछड़ों अजा-अजजा को सामाजिक-शैक्षिक-आर्थिक-राजनीतिक आदि सभी स्तरों पर नए सिरे से परखकर आरक्षण के नवीन मानदंडतय किये जाने चाहिए ।आरक्षण व्यवस्था में जाति के साथ-साथ आर्थिक विषमता को भी आवश्यक शर्त के रूप में शामिल किया जाना चाहिए अर्थातृ सामाजिक मापदंड के साथ-साथ ग़रीबी रेखा को भी विचारणीय मुद्दा बनाया जाना चाहिए ताकि समाज के सचमुच वंचित वर्ग को ही इसका लाभ मिले। एक व्यक्ति को आरक्षण का लाभ जीवन में एक ही बार मिलना चाहिए । संसद विधानसभा, पंचायीतराज आदि राजनीतिक संस्थाओं में वर्तमान आरक्षण व्यवस्था अभी और जारी रहनी चाहिए।

समाज में पुरुष के वर्चस्व को देखते हुए सर्वत्र महिला आरक्षण की आवश्यकता है और लोकसभा के 1999 के चुनावों ने जाटों को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल कर राजनीतिक लाभ ले लेने के बाद विधानसभा के 2003 एवं लोकसभा के 2004 के चुनावों में अगों (ब्राह्माण, राजपूत, वैश्य आदि) को भी आरक्षण देने की बिसात बिछाई गई है।

उपसंहार : नव सामाजिक न्याय को विकसित करने की ज़रूरत : आरक्षण Full Hindi Essay

वोट-राजनीति आरक्षण के मुद्दे का प्रचंडतां से दोहन करेगी लेकिन इस राजनीतिक गुबार के छंटने के बाद भारतीय समाज में ‘नव सामाजिक न्याय’ की अवधारणा विकसित होगी। यद्यपि सरकारी क्षेत्र में नौकरियों की विरलता से आरक्षण काफ़ी अप्रासंगिक हो जाएगा; किंतु आरक्षण एक ही जाति में भेदभाव का आधार  बनता जा रहा है। इसलिए उसी जाति के वंचित वर्ग अपनी जाति के संपन्न लोगों के विरुद्ध उठ खड़े होंगे। आधुनिक युग में जाति का अस्तित्व रह नहीं पाएगा, वर्तमान जातिगत लामबंदी जातिगत लगाव के कारण कम और वैयक्तिक स्वार्थ के कारण अधिक है, यही वैयक्तिक स्वार्थ व्यक्ति को जाति से आगे बढ़कर ‘वर्गीय हितों’ की ओर मोड़ेगा। इस प्रकार आरक्षण की व्यवस्था अभी जाति का आधार लेकर भी आर्थिक विपन्नता का आधार प्राप्त इसलिए करेगी ही, परिवर्तन की इन प्रक्रियाओं से दहशत खाने की ज़रूरत तो नहीं है; किंतु सावचेत होकर सामाजिक समता एवं न्याय प्राप्त करने के लिए जातिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर पिछड़ी जातियों के वास्तविक ‘पिछड़ो’ को संगठित होकर संघर्षात्मक कदम उठाने की ज़रूरत है।

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Written by lokhindi
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