New Hindi Stories With Moral – पांडित्य की खोज

New Hindi Stories With Moral – पांडित्य की खोज

New Hindi Stories With Moral Values For Students Written in the Hindi language  

पुराने जमाने की बात है । अनन्तपुर नगर में परम भूषण नाम का एक पंडित रहता था । उसकी महानता के चर्चे दूर-दूर तक फैले हुए थे । अब पंडित बूढ़ा हो चला था । उसके अनेक शिष्य थे । लेकिन वर्तमान में उसके दो शिष्य उसकी सेवा में सदैव तत्पर रहते थे । पंडित जी भी उनसे कुछ ज्यादा ही लगाव रखने लगे थे ।
उनके नाम क्रमशः धर्मपाल और ज्ञानचंद थे ।

पंडित जी के दोनों शिष्यों के मन में एक सन्देह हमेशा दीमक की तरह लगा रहता था कि ऐसा कुछ शास्त्र या ग्रन्थ नहीं जिसको परम भूषण ने ना पढ़ा हो और ऐसा कोई तथ्य नहीं जिसका ज्ञान उसे ना हो ।

इसलिए दोनों शिष्य अपने गुरु के ज्ञान अर्जन के विषय में अधिकांश बातें किया करते थे । जब भी उन्हें मौका मिलता तो उनकी जबानों पर केवल अपने गुरु की चर्चा होती थी ।

एक दिन धर्मपाल ने अपने गुरु भाई ज्ञानचन्द से कहा- “हे ज्ञानचंद, मैंने सुना है कि हमारे गुरुजी ब्रह्मानंद जी के शिष्य हैं और उनका शिष्य बनना आसान काम नहीं है । क्या यह बात तुमने भी कहीं सुनी है कि तप करके भगवान को पाया जा सकता है, किंतु ब्रह्मानंद जी को नहीं पाया जा सकता ?”

“हां, यह बात मैंने कई लोगों के मुंह से सुनी है, लेकिन मेरे विचार से गुरु चाहे कितना भी महान हो वह नींव की ईंट की भांति होता है । अब यह एक असाधारण बात है कि हमारे गुरु जी ने एक धारक ताङ-पत्रों के ग्रन्थों का अध्ययन करके उन्हें जीर्ण कर लिया है । इसलिए मेरी राय में जिस ग्रन्थ का गुरु जी ने बहुत दिनों पहले अध्ययन शुरू किया था और जिसको वे अब भी पढ़ते रहते हैं, वहीं उनके अनन्य पाण्डित्य का कारण हो सकता है ।” ज्ञानचंद ने विचार प्रकट किये ।  

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दोनों इसी विषय पर काफी देर तक चर्चा करते रहे और अंत में इस नतीजे पर पहुंचे कि अपने इस सन्देह का निराकरण वे अपने गुरु जी से ही करायेंगे ।

वास्तव में गुरु जी परमानंद जी अपने इन दोनों शिष्यों को बहुत प्रेम किया करते थे और उन्हें वात्सल्य दिया करते थे । पुत्र के समान उनके साथ व्यवहार किया करते थे ।
अंतः वे दोनों अपने गुरु के पास गये और अपने सन्देह को उन्होंने गुरु जी के सम्मुख प्रस्तुत किया ।

गुरु परमानंद जी ने दोनों शिष्यों की बात बड़े ध्यान से सुनी और फिर बोले- “तुम दोनों को इस प्रकार का संदेह हो, उसे मैं अपना भाग्य ही समझूंगा ।”

काफी समय से में वेदांत संबंधित शंकाओं पर अध्ययन कर रहा हूं, लेकिन मुझे उसका अभी तक कोई समाधान नहीं मिला है । इसका उत्तर केवल मेरे गुरु ब्रह्मानंद जी ही दे सकते हैं । अब वे वृद्ध हो चुके हैं उनका स्वास्थ्य भी अब ठीक नहीं रहता है । तुम दोनों काशी नगरी जाओ और वहां उनसे मिलकर इन संदेह का उत्तर लाओ । इसके बाद में तुम्हारी शंकाओं का उत्तर दूंगा ।”

और यह कहकर गुरु परम भूषण ने अपनी कुछ शंकाए एक ताङपत्र पर लिखकर उन्हें सौंप दीं ।
गुरु का आदेश पाकर दोनों शिष्यों ने काशी के लिए प्रस्थान किया ।

वहां पहुंचकर उन्होंने गुरु ब्रह्मानंद से भेंट की और अपने गुरु की शंकाओं वाले ताङपत्र को उनके सम्मुख रखा ।

गुरु ब्रह्मा जी ने अपने शिष्य परम भूषण के प्रश्नों को देखा और हल्की सी मुस्कान होठों पर सजाकर बोले- “परमभूषण जैसे महान् पंडित को अपने शिष्य के रूप में पाकर में अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता हूँ । ऐसे प्रश्न वही पूछ सकता है और कोई नहीं ।” वह कुछ रुककर फिर बोले- “बेटे – मैं अब वृद्ध हो चुका हूं । इसलिये इन प्रश्नों का समाधान मेरे वश की बात नहीं रही । फिर भी यदि ज्ञान के विकास में में कोई योगदान दे सकूँ तो यह मेरे लिये बहुत बड़ी उपलब्धि होगी । तुम दोनों दो दिन बाद मेरे पास आओ । तब तक मैं इन प्रश्नों के समाधान का प्रयत्न करूंगा ।”

गुरु ब्रह्मानंद ने यह कहकर उन्हें वापस लौटा दिया ।

दोनों चुपचाप वापस चले आये ।

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फिर दो दिन पश्चात् वे दोनों गुरु के पास पहुँचे तो उन्होंने उन्हें कुछ ताङपत्र और दो लेखनियाँ दीं परमभूषण के सन्देहों के उत्तर लिखवाने लगे ।

दोनों ने वहीं बैठकर गुरु के वचनों को ताङपत्र पर अंकित किया और वहाँ से चलने लगे ।

तब उन्हें रोककर गुरु ब्रह्मानन्द ने कहा- “हे पुत्रो ! जब तुम दो दिन पहले आए थे, तो मैंने तुम्हारे सामने संदेह प्रकट किया था, परंतु तुम लोगों ने मेरा वह संदेह स्पष्ट नहीं किया था ?”
“गुरु जी, हम आपका आशय समझे नहीं ।” दोनों की सम्मिलित आवाज उभरी ।

“बेटे ! मैंने उस दिन तुम्हारे सामने संदेह व्यक्त किया था कि ऐसे प्रश्न परमभूषण ही पूछ सकता है और कोई नहीं, तब तुमने कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की थी ।”

“ओह ! गुरुजी- । कहकर दोनों गुरु ब्रह्मानन्द के चरणों में गिर गये, बोले- “हमें क्षमा कीजिए, उस समय हमसे भूल हो गयी । हाँ हम दोनों उन्हीं के शिष्य हैं ।”
क्षमा याचना के बाद दोनों गुरु के चरणों से उठे और पुनः चलने लगे ।

तब गुरु ब्रह्मानन्द जी ने कहा- “यह बात तो मैं उसका पत्र पढ़ते ही समझ गया था, किंतु अपने संशय का समाधान आवश्यक था, इसलिए मैंने तुमसे यह बात पूछी है ।”

“और सुनो, तुम परमभूषण के शिष्य हो इसलिए तुम्हें अधिक बताने की आवश्यकता नहीं । तुम लोगों ने स्वयं देख लिया होगा कि तुम्हारे गुरु के संदेह मानव धर्म संबंधी हैं । लेकिन मेरे समाधानों से कुछ विशेष प्रश्न उत्पन्न हो रहे हैं । ये प्रश्न रसायन शास्त्र संबंधी हैं । इनका समाधान मुरलीपुर का एक कुम्हार शांति स्वरूप ही कर सकता है । तुम उसके पास जाओ, उनसे भेट करो और मेरे इन प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करो । यदि तुम नहीं कर पाए तो तुम्हारा प्रचार अधूरा रह जायेगा और तुम्हारे गुरु के सन्देहों का निराकरण भी मध्य में ही रह जायेगा ।

अब उन्हें आगे अपने गुरु की आज्ञा का पालन करने के लिए मुरलीपुर जाना था । अतः वे वहीं से मुरलीपुर के लिए प्रस्थान कर गये ।

वहां पहुंचकर वे शांतिस्वरूप कुम्हार से मिले, उन्होंने उनके पास आने का कारण बताया ।
तब वह उनसे मिलकर अति प्रसन्न हुआ । उसने उनकी तरह गुरु ब्रह्मानंद जी की कुशलक्षेम पूछने के बाद उन्हें आदर-सम्मान देकर बिठाया ।

फिर वह बोला- “जब आचार्य जी गली के एक चबुतरे पर बैठकर पाठ पढ़ाया करते थे, तो मैं दूर खड़ा होकर उनकी सब बातें बड़े ध्यान से सुना करता था । मेरे मन में बस यही रहता था कि यदि उनकी बातें राई के दाने के सम्मान भी मैं ग्रहण कर लूंँ, तो मेरा जन्म धन्य हो जायेगा ।”

एक दिन उन्होंने मुझे दूर खड़ा देखकर अपने पास बुलाया और कहने लगे- “शांतिस्वरूप ! ज्ञान ग्रहण करने की तुम्हारी यह ललक मैं काफी दिनों से देख रहा हूं । तुम्हारी प्रज्ञा को लेकर तुम्हारी बिरादरी के लोगों के बीच जो चर्चा चल रही है, उससे भी में परिचित हूँ । एक न एक दिन ज्ञान के इस महासागर का मंथन करने तथा ज्ञान की खोज मानव संबंधों के लिए मुझे तुम्हारी सहायता प्राप्त करनी पड़ेगी । क्या तुम मुझे वह सौभाग्य प्रधान करोगे ?” गुरु जी ने मुझे आशीर्वाद देते हुए कहा ।

फिर मैं कुछ देर ठहरने के बाद पुनः बताने लगा- “इसके बाद मुझे राज्यश्रय मिल गया और मैं काशी छोड़कर यहां मुरलीपुर चला आया ।
इस प्रकार शांतिस्वरूप ने अपना परिचय दिया और ब्रह्मानंद के सन्देहों का समाधान भी जुटा दिया ।

फिर दोनों शिष्यों ने शांति स्वरूप से आज्ञा ली और वहां से चलने को हुए, तो उन्हें रोककर उनसे कहा- “प्रिय बंधुओं ! आचार्य जी के प्रश्नों का उत्तर मैंने अपनी समस्त विद्या के अनुभव के आधार पर दिया है । मैं नहीं जानता कि मेरे ये उत्तर शास्त्र की कसौटी पर खरे उतरेंगे या नहीं । मैंने पंडितो से सुन रखा है कि रसायन शास्त्र से सही समाधान प्राप्त होते हैं । इस शास्त्र के दक्ष मेरे बचपन का मित्र और आचार्य ब्रह्मानंद जी का प्रिय शिष्य परमभूषण जो इस समय अनंतपुर में रहता है । आप मेरी याचना उन तक पहुंचा दें । बस, में तुम लोगों से यही चाहता हूं ।”

शांतिस्वरूप की बातों को सुनकर धर्मपाल और ज्ञानचंद दोनों चकित रह गये ।
वे नहीं जानते थे कि उनका गुरु कितना महान पंडित एव शास्त्री हैं । फिर वे बोले- “हे गुरुदेव ! हम दोनों ही आचार्य परमभूषण की शिष्य हैं और उनके कार्य से ही हम पहले महागुरुदेव ब्रह्मानंद जी के पास आए थे और फिर उनके कहने पर ही हम लोग आपके पास आए हैं ।”

दोनों शिष्य इस बात को भी नहीं जानते थे कि वे जिस महान् व्यक्ति से बात कर रहे हैं, उन्हें उनकी हर बात का पहले ही अपनी विद्या के आधार पर पता चल गया था ।
फिर वे अनंतपुर की ओर प्रस्थान कर गयें

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अनंतपुर आकर उन्होंने अपने गुरु को वे सब बातें बता दीं जो शांतिस्वरूप ने उन्हें बताई थी और जो महागुरु ब्रह्मानंद जी ने उनसे कहा था ।

उनकी सारी बातें सुनकर परमभूषण धीमे से मुस्कुराये । फिर वे बोले- “लोग मुझे महान पंडित कहते हैं । यह बात तुम लोग भी जानते हो । किंतु फिर भी मैं कितनी ही बातें नहीं जानता, यह तुमने भी देख लिया है । इन्हें जानने के लिये तुम्हें कितना काम करना पड़ेगा, यह भी तुमने जान लिया है ।”

परमभूषण आगे बताने लगे- “गुरु और ग्रन्थ अवश्य ही ज्ञान की खोज में सहायक होते हैं, किंतु फिर भी बहुत कुछ अज्ञात रह जाता है । इसलिये मेरा मानना है कि असली पंडित के लिए अनिवार्य है कि वह अज्ञात विषयों को जानने के लिए बराबर अन्वेषण करता रहे । इस प्रकार ज्ञान की खोज करने वाला ही वास्तव में पंडित कहलाने का अधिकारी है ।”

अपने गुरु की बातो में छुपे सत्य की परख करके धर्मपाल और ज्ञानचंद ने वही मार्ग अपनाया |

उन्होंने अज्ञात की खोज में अपना सारा जीवन लगा दिया | इसी कारण आगे चलकर वे श्रेष्ठ और महान् पण्डित कहलाये ।

शिक्षा – “ ज्ञान सागर इतना विशाल है कि कोई भी मनुष्य इस महासागर को अपनी विधारुपी नाव से पार नहीं कर सकता, भले ही वह कितना भी बड़ा ज्ञानी क्यों न बन जाये । किंतु जो मनुष्य उस महासागर में बराबर गोते लगाता रहता है, उससे अमूल्य मोती खोज निकालता है, वही वास्तव में शास्त्री और पंडित बनता है । परंतु उसे भी यह नहीं समझना चाहिए कि उसके अंदर ज्ञान का भंडार परिपूर्ण हो चुका है । वह चाहे कितना भी ज्ञान अर्जित कर ले, फिर भी वह इस विषय में अपूर्ण ही रहता है ।”

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Written by lokhindi
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