भारतीय समाज में नारी निबंध

भारतीय समाज में नारी निबंध – Women in Indian society Essay

भारतीय समाज में नारी

Women in Indian society: Goddess or Abla Essay / भारतीय समाज में नारी: “देवी” या “अबला” पर आधारित पूरा हिंदी निबंध 2019 (भारतीय समाज में नारी  पर हिंदी निबंध)


नारी की अंतर्विरोधात्मक स्थिति:

भारतीय समाज में नारी निबंध

भारतीय समाज में नारी

भारतीय समाज में नारी की स्थिति अनेक प्रकार के विरोधों से ग्रस्त रही है। एक तरफ़ वह परंपरा में शक्ति और देवी के रूप में देखी गई है, वहीं दूसरी ओर शताब्दियों से वह ‘अबला’ और ‘माया’ के रूप में देखी गई है । दोनों ही अतिवादी धारणाओं ने नारी के प्रति समाज की समझ को, और उनके विकास को उलझाया है। नारी को एक सहज मनुष्य के रूप देखने का प्रयास पुरुषों ने तो किया ही नहीं, स्वयं नारी ने भी नहीं किया। समाज के विकास में नारी को पुरुषों के बराबर भागीदार नहीं बनाने से तो नारी पिछड़ी हुई रही ही, किंतु पुरुष के बराबर स्थान और अधिकार माँगने के नारी मुक्ति आंदोलनों ने भी नारी की स्थिति को काफ़ी उछाला । नारी के संबंध में धार्मिक-आध्यात्मिक धारणा ने अनेक तरह की भ्रांतियाँ पैदा कीं तो आधुनिक समतावादी समाज में नारी और पुरुष दोनों के एक-जैसा समान समझने के कारण भी टकराव पैदा हुआ। भारत की संस्कृति हज़ारों वर्ष पुरानी होने के कारण इसमें नारी के जो विविध रूप अंकित हुए उनके वास्तविक एवं व्यावहारिक पक्ष को समझने में भी बहुत कठिनाई हुई। इसलिए न केवल भारतीय नारी की स्थिति को बल्कि पुरुष एवं पुरुष प्रधान समाज के परिप्रेक्ष्य में विश्व नारी को समझना एक जटिल कार्य है।

महिला जनसंख्या के ग्राफ की गिरती रेखा:

भारत की कुल जनसंख्या में नारी का अनुपात 48 प्रतिशत है और यह लगातार कम होता जा रहा है। 1901 में प्रति एक हज़ार पुरुषों पर नारी का अनुपात 972 से घटकर 2012 में 940 है किंतु 0-6 वर्ष की आयु में यह अनुपात 916 ही रह गया है और इसके घटने की गति और अधिक बढ़ती जा रही है। यद्यपि यह तो सामाजिक चिंता का विषय है ही कि भारतीय समाज में प्रतिवर्ष स्त्रियों की संख्या पुरुषों की तुलना में कम होती जा रही है, किंतु पुरुषों की तुलना में उनका विकास भी असंतुलित है। शिक्षा की दृष्टि से भारत में औसत शिक्षा ? प्रतिशत कि तुलना में ? प्रतिशत कम है। क्या कारण है कि इस मानव-सृष्टि और संस्कृति की रचना में पुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक योगदान करने वाली नारी स्वयं के विकास को लेकर उपेक्षित रही। ‘बलवान पुरुष’ को जन्म देनेवाली नारी ‘ आँचल में दूध एवं आँखों में पानी’ लिए हुए ‘अबला’ ही बनी रही।

मानव समाज के विकास का यह खुला रहस्य है कि जब तक सभी लोग सहकारिता से भागीदार नहीं होते, सबका विकास संभव नहीं है। इसलिए स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार तथा सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक क्षेत्रों में नारी की पुरुषों के बराबर ही सहभागिता अनिवार्य है, और तभी संपूर्ण समाज का विकास हो सकेगा । नारी का विकास केवल नारी की खुशहाली की दृष्टि से ही आवश्यक नहीं है बल्कि वह संपूर्ण समाज के संतुलित विकास की दृष्टि से भी अनिवार्य है।

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भारतीय इतिहास में नारी : वर्चस्व का क्रमश: सिकुड़ता मार्ग:

इतिहास में नारी सभ्यता की शुरुआत में परिवार के केंद्र में नारी थी। परिवार मातृ-सत्तात्मक था। खेती की शुरुआत तथा एक जगह बस्ती बनाकर रहने की शुरुआत नारी ने ही की थी, इसलिए सभ्यता और संस्कृति के प्रारंभ में नारी है; किंतु कालान्तर में धीरे-धीरे सभी समाजों में सामाजिक व्यवस्था मातृसत्तात्मक से पितृ-सत्तात्मक होती गई और नारी समाज के हाशिए में चली गई ।

वैदिक काल- आर्यों की सभ्यता और संस्कृति के प्रारंभिक काल में महिलाओं की स्थिति बहुत सुदृढ़ रही है।ऋग्वेद काल में स्त्रियाँ उस समय की सर्वोच्च शिक्षा अर्थात् ब्रह्म ज्ञान प्राप्त कर सकती थीं। ऋग्वेद में सरस्वती को वाणी की देवी कहा गया है जो उस समय नारी की शास्त्र एवं कला के क्षेत्र में निपुणता का परिचायक है । अद्र्धनारीश्वर की कल्पना स्त्री और पुरुष के समान अधिकारों तथा उनके संतुलित संबंधों का सूचक है। वैदिक काल में परिवार के सभी कार्यों और भूमिकाओं में पत्नी को पति के समान अधिकार प्राप्त थे। नारियाँ शिक्षा ग्रहण करने के अलावा पति के साथ यज्ञ का संपादन भी करती थीं। वेदों में अनेक स्थलों पर रोमाला, घोषाल, सूर्या, अपाला, विलोमी, सावित्री, यमी, श्रद्धा, कामायनी, विश्वंभरा, देवयानी आदि विदूषियों के नाम प्राप्त होते हैं। उत्तर वैदिक काल में भी स्त्रियों की प्रतिष्ठा बनी रही तो उन्हें ब्रहमा (सर्जक) तक कहा गया है । गार्गी, मैत्रेयी, उद्दालिका, विदग्धा आदि विदूषियाँ दार्शनिक एवं आध्यात्मिक चर्चाओं तक में सफलता साथ भाग लेती थीं। इसके अलावा शासन, सेना, राज्य-व्यवस्था में स्त्रियों के योगदान के प्रमाण मिलते हैं।

पुराण काल- रामायण -महाभारत काल में नारी के अधिकार पहले-जैसे नहीं रहे । वर्ण-व्यवस्था में भी कठोरता आई तथा नारी घर-गृहस्थी तक सीमित रहने लगी । बहुपत्नी व्यवस्था और अनुलोम विवाह के कारण नारी उपभोग की वस्तु बनने लगी । तप, त्याग, नम्रता, धैर्य और पतिव्रत धर्म का पालन करना उनके प्रमुख लक्ष्य माने गए । पति के मनमाने अधिकार का ज्वलंत उदाहरण द्रौपदी और सीता बनी। किशोरियों से बन को शिक्षा वंचित रखा जाने लगा । बहु-विवाह एवं बाल-विवाह होने लगे, विधवाओं की संख्या बढ़ने लगी । विधवा विवाह पर प्रतिबंध लगा । पतिव्रता धर्म सर्वोच्च बन जाने के कारण विधवा का जीवन नरक हो गया, परिणामस्वरुप सती-प्रथा का जन्म हुआ । किशोरियाँ और युवतियाँ मंदिरों में बलात् देवदासियाँ बना दी गई और धर्म के नाम पर वेश्यावृत्ति पनपी । मनु ने नारी को पिता, पति और पुत्र के अधीन रखने का विधान प्रस्तुत किया। इससे नारी पुरुष की सहभागिनी न होकर मात्र अनुगामिनी बनकर रह गई ।

मुग़ल काल- मुगलकाल में सामंतवाद के कठोर हो जाने से तो नारी की स्थिति बदतर हो गई । कुल के रक्त की शुद्धता, नारी के सतीत्व की रक्षा और हिंदु धर्म की रक्षा के नाम पर नारी को ऐसे-ऐसे सामाजिक-धार्मिक बंधनों में जकड़ दिया गया कि वह पुरुष की छायामात्र होकर रह गई और उसका स्वतंत्र अस्तित्व लुप्त हो गया । इस काल में स्त्री शिक्षा समाप्त हो गई और पर्दा-प्रथा और सती-प्रथा यहाँ तक कि मादा-शिशु की हत्या बढ़ गई। उत्तर भारत की तुलना में दक्षिण भारत में विदेशी आक्रमणों का प्रभाव कम था इसलिए वह बाल-विवाह, पर्दा-प्रथा और सती-प्रथा-जैसी कुप्रथाएँ कम पनप सकीं। यद्यपि मध्यकालीन इतिहास में रजिया बेगम, चाँद बीबी, ताराबाई अहल्या बाई आदि वीरांगनाओं ने शासन संचालन में ख्याति प्राप्त की किंतु इन चंद नारियों के उदाहरणों से यह नहीं कहा जा सकता की सामान्य स्त्री की स्थिति किसी भी तरह संतोषजनक थी।

ब्रिटिश काल- अंग्रेजों के शासनकाल में भारतीय समाज में एक साथ अनेक तरह के परिवर्तन आए। भारतीय समाज पुनर्जागरण के दौर से गुज़रा। अशिक्षा, अंधविश्वास को दूर करने के प्रयास हुए। राजा राममोहन रायईश्वरचंद्र विद्यासागर, स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गाँधी आदि जैसे महापुरुषों का समर्थ नेतृत्व मिला जिसने नारी की स्थिति को उन्नत करने का अभियान चलाया। उनके प्रयासों से सती-प्रथा, बाल-विवाह, विधवा-विवाह पर प्रतिबंध लगा तथा स्त्रियों के संपत्ति संबंधी अधिकारों को लेकर कानून बने जिससे स्त्रियों के साथ हो रहा बहुत-सा सामाजिक अन्याय कम हुआ । स्वतंत्रता आंदोलन के समय बहुत-सी महिलाओं ने पुरुषों के साथ कदम मिलाकर नारी की भूमिका को फिर से समता आधारित बनाने की कोशिश की । दरअसल स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद तो भारतीय समाज में नारी की स्थिति में काफी परिवर्तन आया।

स्वतंत्रता और भारतीय नारी की मुक्ति का नया दौर:

स्वतंत्रता के बाद नारी शिक्षा को लेकर विशेष प्रयत्न किये जाने लगे। राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियों में नारी की भूमिका को पुरुष के बराबर लाने के प्रयास हुए। भारतीय फ़िल्मों, समाचार-पत्रों तथा साहित्य स्त्री-पुरुष संबंधों में बराबरी और स्वतंत्रता को ध्यान में रखकर निरंतर अभिव्यक्तियाँ दीं। संचार माध्यमों के विकास से भी भारतीय नारी का संपर्क अपने देश में, और बाहर भी, तेजी से बढ़ा । यद्यपि अभी भी भारतीय महिलाओं का एक बड़ा भाग घर तक ही सीमित है । वे अभी भी व्रत-नियम, पूजा-पाठ, दान-पुण्य, चूहा-चौका, बच्चों का पालन-पोषण तथा पति की सेवा तक ही सीमित हैं, किंतु शिक्षा के प्रसार के साथसाथ बहुत-से अंधविश्वास कम हुए हैं और कार्यालयों, कारखानों, बाज़ारों में स्त्रियों की सहभागिता बढ़ने लगी है। इस समय भारतीय समाज समता एवं स्वतंत्रता पर आधारित नए-नए संघर्ष और नए-नए सामंजस्य की प्रक्रिया से गुज़र रहा है और भारतीय नारी के व्यक्तित्व में एक नई चमक प्रकट होती जा रही है । कोई भी सामाजिक परिवर्तन बिना संघर्ष और तनाव के नहीं होता, इसलिए भारतीय समाज में स्त्री-पुरुषों के संबंधों को लेकर नई-नई तरह के तनाव एवं टकराहटें पैदा हो रही हैं, किंतु यदि नए समाज को रचा जाना है तो इस तरह की टूट-फूट की प्रक्रिया से तो गुज़रना ही होगा।

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पश्चिमी नारी और भारतीय नारी:

पश्चिमी समाज में नारी-मुक्ति की दिशा भिन्न रही है। वहाँ इस शताब्दी में चले नारी-मुक्ति के आंदोलनों में स्त्री और पुरुष को हर दृष्टि से समान मानने की सोच रही है, किंतु भारतीय समझ इस संदर्भ में भिन्न है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था-‘पश्चिम की नारी पहले पत्नी, फिर माँ है जबकि भारत की नारी पहले माँ, फिर पत्नी है, यह एक बुनियादी अंतर है।” सोच का यह अंतर वस्तुत: दो संस्कृतियों का अंतर है। नारी में माँ का व्यक्तित्व त्याग, सहिष्णुता, वात्सल्य से संपन्न रहता है। नारी पुरुष की तुलना में माँ होने को लेकर ही भिन्न है। उसके माँ होने को उपेक्षित ही नहीं किया जा सकता । इसलिए नारी और पुरुष को समान रूप में रखना वास्तविकता से आंखें मूंदना है किंतु एक नारी के माँ बनने को उसके शोषण का ज़रिया नहीं बना लेना चाहिए, बल्कि उसे मानव-संस्कृति की सृष्टि के रूप में देखकर सम्मानित किया जाना चाहिए । माँ होने की दृष्टि से नारी यदि शारीरिक बल से कुछ कम भी है तो मानसिक एवं भावात्मक दृष्टि से उसमें एक अद्भुत् तरह की सामर्थ्य भी है जो बच्चे और संपूर्ण समाज के विकास की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। नारी की इस भूमिका को सही तरीके से पुरुषों और नारियों दोनों को ही समझने और स्त्री और पुरुष के बीच सही सामंजस्य बिठाने की आवश्यकता है । नारी द्वारा नारी का शोषण मिटाए बिना तो नारी-शोषण से मुक्ति संभव है ही नहीं किंतु सभी पुरुषों में भी नारी-विकास के द्वारा संपूर्ण समाज के विकास की सही समझ विकसित किए बिना नारी एवं संपूर्ण समाज का विकास संभव नहीं है।

नारी की समसामयिक त्रासदियाँ:

समसामयिक काल में नारी समता की एक नई चेतना भारतीय समाज में व्याप्त हुई है किन्तु अभी भी समाज के प्राय: हर स्तर पर, विशेष रूप से ग्रामीण समाज में उसकी स्थिति बदतर ही है । वह घर में दासी तरह कार्यरत है, घर के महत्वपूर्ण निर्णय पुरुष के हाथ में हैं। घर के कार्य में दिन-रात खटती है किंतु उसके इस महत्वपूर्ण श्रम को उत्पादक ही नहीं माना जाता। मध्यवर्गीय, महिला के घरेलू काम का तो कोई अधिक मूल्यांकन ही नहीं है। समाज में बढ़ता जा रहा दहेज जाल इस बाजारू व्यवस्था मे नारी के कमज़ोर माने जाने का स्पष्ट प्रमाण है। जन्म लेने से पहले ही लड़की के भ्रूण को गिरा देना तथा जन्म लेने के बाद लड़कियों की हत्या कर देना भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति को प्रकट करता है । 1981 में बिहार में महिला अनुपात 946 से 2001 में 926 रह गया है। गाँवों में दाइयों के द्वारा बालिका शिशु की हत्या पर उनका कंथन है- “हमें हर महीने एक-दो स्त्री शिशुओं की हत्या करनी पड़ती है, ऐसा हमें शिशुओं के अभिभावकों के आदेश पर करना होता है, हत्या नहीं करने पर हमें मारा-पीटा जाता है, मारने पर कुछ अधिक पैसा या अनाज दिया जाता है । शिशुओं की माताएँ आम तौर पर इस हत्या के लिए सहमत नहीं होतीं लेकिन उनकी आवाज़ को दबा दिया जाता है।” ऐसी स्थितियाँ आम नहीं हैं किंतु इस प्रकार की घटनाएँ भारतीय समाज में नारी की विकट स्थिति के एक पक्ष को अवश्य प्रकट करती हैं। प्रकट यद्यपि भारतीय पुनर्जागरण काल से विशेष रूप से आज़ादी के बाद से ही भारतीय समाज में नारी चेतना को लेकर क्रांतिकारी परिवर्तन भी आया है।

नारी-मुक्ति आंदोलन : उपयुक्त दिशा:

पश्चिमी समाज की तरह नारी-मुक्ति आंदोलन को नारियों द्वारा ही अलग-रूप में चलाने में महिला विकास की उपयुक्त दिशा नहीं है । परिवार से लेकर संपूर्ण समाज तक स्त्री थलग और पुरुष की सहभागिता क़दम-क़दम पर इतनी अधिक है कि संपूर्ण समाज के परिप्रेक्ष्य में ही नारी-मुक्ति आंदोलनों को नारी और पुरुषों दोनों की सहभागिता से चलाया जाना चाहिए। पश्चिम के प्रभाव से भारतीय समाज में भी नारी उच्छृंंखलता की जो कुछ थोड़ी-बहुत लहर दिखाई पड़ती है वह उचित नहीं है। स्त्री और पुरुष दोनों को ही यह गहराई से देखने की आवश्यकता है कि बच्ची से लेकर उसके बड़े होने तक नारी का शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार की दृष्टि से कैसे-कैसे दमन किया गया है और उसे कैसे-कैसे सही रूप में सहेजने और विकसित करने की आवश्यकता है। आज नारियों पर हो रहे अत्याचार मादा भ्रूणहत्या, मादाशिशुहत्या, कुपोषण, बाल-विवाह, लड़कियों का लैंगिक शोषण, स्वास्थ्य-उदासीनता, शिक्षा के समुचित अवसर प्रदान न करना, बलपूर्वक विवाह, बलात्कार, वेश्यावृत्ति, अल्पावधि गर्भधारण, वधू-हत्या वृद्धाओं की उपेक्षा आदि के रूप में है जिसे दूर करने की ज़रूरत है। विद्यालय, परिवार, कारखाने, कार्यालय, राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में स्त्री और पुरुषों के समता आधारित संबंधों की नई समझ को विकसित करने की आवश्यकता है ।

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सामाजिक विकास के परिप्रेक्ष्य में नारी-विकास:

भारतीय राजनीति में यद्यपि इसकी विशेष पहल की गई है, संविधान के पंचायतराज संबंधी 73वें संशोधन में स्त्रियों का एक-तिहाई स्थानों पर आरक्षण किया गया है तथा भारतीय संसद में एक-तिहाई स्थानों पर स्त्रियों का आरक्षण-संबंधी बिल संसद के समक्ष विचाराधीन है जो संपूर्ण विश्व इतिहास में नारी समता को लेकर अद्भुत घटना है; किंतु व्यवहार में इस स्त्री-पुरुष समता को लेकर अभी बहुत-कुछ किया जाना बाकी है । नारी-चेतना को लेकर विभिन गैर-सरकारी संगठनों ने जो अनेक कार्यक्रम चला रखे हैं उन्हें भी और अधिक व्यापक और पैना बनाने की आवश्यकता है । वस्तुत: नारियों के साथ समतामूलक व्यवहार केवल नारियों के प्रति सहानुभूति रखने एवं उनके पिछड़ेपन को दूर करके उनका विकास करने भर का नहीं है बल्कि यह संपूर्ण समाज के संतुलित उन्नयन का सवाल है। नारी अनेक क्षेत्रों में पुरुष के बराबर है तो अनेक क्षेत्रों में वह अनुपूरक भी है। बराबर के सहभागी को, विशेष रूप से अनुपूरक सहभागी को कमज़ोर रखकर विकसित कैसे हुआ जा सकता है फिर नारी और पुरुष दोनों इतने सतत सहभागी हैं कि नारी को सक्षम बनाने के लिए नारी और पुरुष दोनों को ही सोचना और सक्रिय होना होगा। इसलिए बेहतर समाज के निर्माण के लिए नारीवादी दृष्टि से परे प्रत्येक महिला और प्रत्येक पुरुष को नारी की सामर्थ्य बढ़ाने और इस प्रकार पूरे समाज की सामथ्र्य बढ़ाने का विचार करना ज़रूरी है। भारतीय पारंपरिक समाज में महिला विकास के सोच को उसकी स्वतंत्रता, स्वास्थ्य, शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता को बढ़ाने के रूप में विकसित करने की आवश्यकता है।

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Written by lokhindi
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