समान नागरिक संहिता Essay 2019

समान नागरिक संहिता Essay – Uniform civil code

समान नागरिक संहिता

Uniform civil code : Look for the possibility / समान नागरिक संहिता : संभावना की तलाश पर आधारित पूरा हिंदी निबंध 2019 (समान नागरिक संहिता पर हिंदी निबंध)


समान नागरिक संहिता का उठता सवाल:

समान नागरिक संहिता Essay 2019

समान नागरिक संहिता

न्यायाधीश खरे की अध्यक्षतावाली उच्चतम न्यायालय की पूर्वपीठ ने जुलाई, 2003 को एक पादरी की याचिका पर अपने निर्णय में कहा कि उत्तराधिकार अधिनियम, 1870 की धारा 118 के अनुसार कोई भी ईसाई अपनी वसीयत में धार्मिक और धर्मार्थ कार्यों के लिए दान का प्रावधान नहीं कर सकता इसलिए प्रावधान संविधान की समता के नियम का खुला उल्लंघन करता है; अतः असंवैधानिक तथा निरस्त किए जाने योग्य है । उन्होंने केंद्र सरकार पर टिप्पणी करते हुए यह भी कहा कि यह खेद का विषय है कि संविधान के अनुच्छेद 44 को अभी तक लागू नहीं किया जा सका है जिसके लिए सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता बनाने हेतु राज्यों से प्रयास करने को कहा गया है । न्यायालय ने स्पष्ट किया कि समान नागरिक संहिता इस आधार वाक्य से निर्धारित है कि सभ्य समाज में धार्मिक और व्यक्तिगत विधि के बीच कोई संबंध नहीं है । उच्चत्तम न्यायालय भाजपा का घोषणा-पत्र जारी नहीं कर रहा है जिसमें भी समान नागरिक संहिता बनाने का संकल्प है न इस न्यायालय कोई राजनीतिक उद्देश्य है, किंतु पहले 1995 में ‘सरला मुद्गल बनाम भारत सरकार’ में एक हिंदू महिला के अधिकारों के संबंध में और उससे से भी पहले 1985 में शाहबानो प्रकरण में देश का यह शीर्ष न्यायालय पूरे देश के नागरिकों के व्यक्तिगत अधिकारों को लेकर साफ-साफ भेदभाव और अन्याय होता देखकर भारत सरकार को इस प्रकरण में याद दिलाता रहा है । विचारणीय, यह है कि इस सीधे से धर्म निरपेक्षता आधारित समतामूलक नागरिक अधिकार के न्यायपूर्ण मुद्दे पर भारतीय राजनीतिक वोट बटोरने के लिए भारतीय समाज की सांप्रदायिक विषमता का कितना अन्यायपूर्ण दुरुपयोग करती है ।

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संविधान में समान नागरिक संहिता के संबंध में प्रावधान:

भारत के संविधान के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता के प्रावधान में यह भावना नीहित है कि समान नागरिक संहिता बंधुत्व राष्ट्र की उन्नति तथा राष्ट्र की एकता एवं अखंडता के उद्देश्य की पूर्ति है और यही संविधान का महत्वपूर्ण उद्देश्य भी है । संविधान के 42 वें संशोधन द्वारा संविधान में अनुच्छेद 51 – क(ङ) जोड़कर यह प्रावधान किया गया कि भारत के सभी लोगों में समानता और भ्रातृत्व की भावना स्थापित वह जो धर्म, भाषा और प्रदेश पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो । ऐसी प्रथाओं का त्याग करें जो स्त्रियों के सामान के विरुद्ध हो । उपर्युक्त परिवर्तनों से यह स्पष्ट है कि एक ऐसा कानून बनाया जाए जो न केवल विभिन्न धर्मावलंबियों के बीच समान रूप से लागू हो बल्कि स्त्रियों और पुरुषों के बीच समानता एवं पारस्परिक गरिमा स्थापित करें । जब भारत की संविधान सभा में समान नागरिक संहिता का विचार चल रहा था तब भी समान नागरिक संहिता बनाने पर मतैक्य नहीं था । क्योंकि उसी समय हमारा देश धर्म के आधार पर, द्वि-राष्ट्र सिद्धांत पर विभाजित हुआ था तथा उस समय धार्मिक उन्माद प्रबलता था । इसलिए संविधान सभा में यह मत जोरो से उठा कि समान नागरिक संहिता धार्मिक स्वतंत्रता के मूल अधिकारों के विरुद्ध होगी, जिसका उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 25 मैं है । ऐसी आचार संहिता में अल्पसंख्यक धार्मिक संप्रदाय ने अपने प्रतिकूल समझा । उस समय भारतीय नेता अपनी उदारता के कारण एक राष्ट्रवाद के सिद्धांत में विश्वास करने वाले उन मुसलमानों को, जो भारत में ही रह गए थे, राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ना चाहते थे, इसलिए उस समय नागरिक संहिता के निर्माण पर बल नहीं दिया गया किंतु पिछले 7 दशकों में स्वतंत्रता के नाम पर सभी संप्रदायों में जो सामाजिक विषमताएँ पैदा हुई है उससे समान नागरिक संहिता का प्रश् फिर से जीवंत हो उठा है । हिंदू में महिला अपने के जिन्दा से संपत्ति का अधिकार व्यावहारिक तौर पर उपभोग कर नहीं सकती और मुस्लिम पति के जिंदा रहते उसकी संपत्ति में अधिकार है । वह इस स्तर पर पुरुष की तुलना में भेदभाव से ग्रस्त नहीं, अतः इसके अलावा हिंदू, मुस्लिम, विशेष विवाह विधि मुस्लिम पर्सनल विधि, ईसाई व्यक्तिगत विधि, उत्तराधिकार से संबंधित विधि ऐसे व्यक्तिगत कानून है जो अपने प्रकृति में धर्म निरपेक्ष हैं तथा उन्हें अनुच्छेद 25 एवं 26 की सीमा में लाने का कोई विधेयक नहीं लाया जाना चाहिए । यदि भारतीय संसद ऐसा करती है और जो कि करती रही है तो यह भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र एवं व्यक्ति के मूल अधिकारों के हनन का कार्य है । 1985 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा शाहबानो के प्रकरण में जब शरीयत से भिन्न फैसला दिया तथा मुस्लिम महिला के अधिकार की रक्षा की तो तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने 1986 में मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम पारित किया जिससे तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं इद्दत की अवधि को छोड़कर भरण-पोषण के अधिकार से वंचित हो गई । उस समय यह महसूस किया गया कि कट्टरपंथी मुसलमानों की तुष्टि के लिए मुस्लिम महिलाओं को मुसलमान पुरुषों के बराबर सामाजिक, धार्मिक अधिकार नहीं दिए जा रहे हैं जो धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर एक तरह से स्त्रियों और पुरुषों के बीच असमानता बनाए रखने का प्रयत्न है, जबकि समान नागरिक संहिता के द्वारा मुस्लिम स्त्रियों और पुरुषों के बीच समानता स्थापित की जानी चाहिए ।

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समान नागरिक संहिता का विरोध:

समान नागरिक संहिता का विरोध संविधान निर्माण के समय से ही किया जा रहा है जिसमें ‘ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड’ जैसे मुस्लिम कट्टरपंथी संगठनों की विशेष भूमिका है । इन संगठनों का मत है कि मुसलमानों पर उनकी व्यक्तिगत विधि शरीयत ही लागू होनी चाहिए तथा संविधान से अनुच्छेद 44 को हटा लिया जाना चाहिए क्योंकि यह मुसलमानों के धार्मिक स्वतंत्रता के मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है । इस बोर्ड ने तो 10 अक्टूबर, 1993 के जयपुर अधिवेशन में यह तक घोषणा कर दी कि वह देश में इस्लामी न्यायालयों की स्थापना करेगा और वे न्यायालय मुसलमानों को इस्लामी शरीयत के अनुसार कानूनी राहत प्रदान करेंगे । वस्तुतः ऐसे संगठनों द्वारा यह तर्क दिया जाता है कि भारत में अलग-अलग धर्मवलंबी है । यहां तक कि हिन्दू समाज में भी अलग-अलग रिती-रिवाज, मत-मतांतर इसलिए उनकी जीवन-शैली की स्वतंत्रता को ध्यान में रखते हुए समान नागरिक संहिता लागू नहीं की जा सकती । भारत सरकार ने विधि आयोग को समान कानून बनाने का सुझाव दिया था । जब आयोग ने इस कार्य को क्रियान्वित करने का प्रयास किया तो अनेक मुस्लिम, ईसाई संगठनों ने इसका विरोध किया । फलस्वरूप सरकार ने इस निर्देश को फलस्वरूप वापिस ले लिया ।

समान नागरिक संहिता – Hindi Essay 2019

वर्तमान में समान नागरिक संहिता की वांछनीयता:

भारत एक धर्म-निरपेक्ष राज्य है । यह अपने नागरिकों को अपने-अपने धर्म की आस्था के अनुसार उन्हें उपासना-पद्धति की छूट तो देता है, किंतु यह लोकतांत्रिक राज्य होने के कारण नागरिकों की आधारभूत समानता में भी विश्वास करता है । समान नागरिकता समतामूलक समाज के उद्देश्य की पूर्ति करती है । विभिन्न धर्मावलंबियों, स्त्रीयों और पुरुषों के बीच कोई भेद नहीं रखती । संविधान निर्माण के समय यह अपेक्षा की गई थी कि विभिन्न धर्मों की समानता पर आधारित रीती-नीतियों को समाप्त करने के लिए सुधारवादी आंदोलन प्रारंभ किए जाएंगे । आधुनिकता के विकास के साथ-साथ समानता के अवधारणा मजबूत होगी और अनुकूल वातावरण बनने पर अनुच्छेद 44 की दिशा में समान नागरिक संहिता का निर्माण किया जा सकेगा; किंतु दुर्भाग्य से इसके विपरीत कार्य हुआ । विभिन्न संप्रदाय के लोग क्रिया-प्रतिक्रिया स्वरूप एवं लामबंद होते रहे तथा भारत के समान एवं एकबद्ध नागरिक के रूप में वे अपने आपको नहीं जोड़ सके । भारत की सत्तारूढ़ सरकारों नें राष्ट्रीय एकता की बजाय अल्पसंख्यकों के मत प्राप्त करने के लिए उनके धार्मिक रीति-रिवाजों के संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया । यद्यपि संसद में हिंदू विवाह, हिंदू उत्तराधिकार, हिंदू दत्तक तथा हिंदुओं से संबंधित अनेक कानून पारित किए जा रहे थे और तब हिंदू समाज के संगठनों ने भी इसका विरोध किया था; किंतु जवाहरलाल नेहरू के प्रगतिशील सोच की सरकार ने ऐसे कदमों को सुधारवादी कार्य कहकर संसद द्वारा पारित किया लेकिन इस प्रकार का साहस पंडित नेहरू ने भी अल्पसंख्यकों से संबंधित विधि के निर्माण में नहीं दिखाया तथा विधि के द्वारा सामाजिक सुधार का जो कार्य अल्पसंख्यकों के लिए होना चाहिए था, वह नहीं हुआ, यद्दपि 1999 में मुंबई में ‘आवाज-ए-निस्तान’ नामक संस्था ने मुस्लिम लाँ और महिलाएंँ विषय पर एक राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित कर 43 मुस्लिम महिला संगठनों की 200 प्रतिनिधियों के माध्यम से तलाक, भरण-पोषण, खर्च ए पानदान, संरक्षकता, स्त्री-धन आदि विषयों से जुड़ी वर्तमान मुस्लिम विधि का जमकर विरोध किया तथा पुरुषों को तलाक की एकतरफा छूट को मुस्लिम महिलाओं के साथ अन्याय माना किंतु इसकी राजनीतिक प्रभाविता के अभाव में कुछ भी ठोस कार्रवाई नहीं हो सकी । समान नागरिक संहिता न केवल राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए तथा विभिन्न धार्मिक संप्रदायों में समता स्थापित करने के लिए बनाने की आवश्यकता है बल्कि आधुनिक युग की अपेक्षा के अनुसार समाज सुधार करने, राजनीतिक चेतना का प्रसार करने तथा नागरिकों के आधारभूत समानता एवं शोषण-रहितता स्थापित करने की दृष्टि से भी समान नागरिक संहिता की आवश्यकता है । 

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नागरिक समता और राष्ट्रीय एकता:

समान नागरिक संहिता का सवाल केवल कानूनी या सांवैधानिक नहीं है यह सामाजिक और सांस्कृतिक भी है । यह भारत की प्रत्येक महिला, बच्चे तथा पुरुषों के समान अधिकारों, पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर असमानता को हटाकर शोषण की प्रक्रिया को समाप्त करने का है । इससे भी अधिक यह मूलतः रूढिग्रस्त, वर्णवादी, जातिवादी, संप्रदायवादी मध्यकालीन सामंती समाज को आधुनिक समतावादी, न्यायसंगत और नैतिक रूप से सभ्य समाज बनाने का मसला है, अंतः समान नागरिक संहिता बनाने का वातावरण तैयार करने के लिए धार्मिक संप्रदायों के प्रगतिशील लोगों द्वारा सामाजिक सुधार का व्यापक, आंदोलन चलाने की आवश्यकता है । जिस प्रकार सुधारवादी आंदोलनों के कारण हिंदू धर्म में स्थापित सतीप्रथा, बालविवाह आदि को दूर किया गया है, स्त्रियों की समानता स्थापित किए जाने वाले कुछ कानून बनाए गए हैं । उसी प्रकार मुस्लिम और इसाई धर्मों में भी संप्रदाय एवं लिंगभेद की उदार एवं आधुनिक दृष्टि अपनाकर समानता आधारित कानून बनाने की आवश्यकता है । बेहतर यह होगा उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए निर्देशों एवं की गई अपेक्षाओं के अनुरूप एक समान नागरिक संहिता बने; किंतु यह किसी एक राजनीतिक दल के चुनाव घोषणा पत्र में अंकित कर देने से नहीं होगा बल्कि सभी राजनीतिक दलों एवं समुदायों द्वारा बहुत सकारात्मक एवं गंभीर वातावरण में, राष्ट्रीय स्वार्थों से परे उठकर, विचार कर, निर्णय लेने से ही संभव होगा । सामाजिक परंपराओं में संशोधन जनता पर थोपे नहीं जा सकते और लोकतंत्र में तो बिल्कुल नहीं । सामाजिक रीतियाँ जनता की भावनाओं पर तैरती हैं और जन भावना को मोड़ देने के लिए जनता के भावनात्मक एवं बौद्धिक स्तर पर ठोस कार्य करना होता हैं । किंतु मध्यकालीन शिकंजों में फंसी सभी धर्मों की भारतीय महिलाओं को जिल्लत से निकालने के लिए यह जटिल कार्य करना ही चाहिए ।

वस्तुत: ऐसे सामाजिक राजनीतिक परिवर्तन के कार्य के लिए समाज के प्रत्येक वर्ग के प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को आगे आना होगा हैं, उन्हें अपने अपने सामुदायिक वर्गों को परिवर्तन करने के लिए तैयार करना होता हैं । यह परिवर्तनकारी कार्य आसान नहीं है किंतु सामाजिक परिवर्तन पर सपना कहां निर्बाध होता है । यह मसला निश्चय ही संवेदनशील है किंतु इससे भयभीत होने की जरूरत नहीं है, यह हमारे समय की जरूरत हैं । अतः में हम उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश गजेंद्र गढ़कर के शब्दों में आज भी यही कहने के लिए विवश है कि संविधान के अनुच्छेद 44 की अनुपालना नहीं करना भारतीय लोकतंत्र की बड़ी भारी असफलता है और हम इस संबंध में जितना शीघ्र कदम उठाएंगे उतना बेहतर है । एक नई धर्मनिरपेक्ष नागरिक व्यवस्था विकसित करने के लिए समान नागरिक संहिता अपरिहार्य है । यदि आप सच्चे धर्म निरपेक्ष है, आधुनिकतावादी और प्रगतिशील है तो समान नागरिक संहिता की जरूरत पर और इसके प्रारूप पर बहस करें और इसे अपनाने का माहौल बनाएं । यदि ऐसा हो सका तो समान नागरिक संहिता का बनाया जाना भारतीय समाज के आधुनिकीकरण एवं धर्मनिरपेक्ष भारतीय लोकतंत्र के रास्ते में एक और महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित होगा ।

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Written by lokhindi
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