भ्रष्टाचार पर हिंदी निबंध – Essay on Corruption Hindi

भ्रष्टाचार पर निबंध

Increasing corruption: Crisis of cultural values essay / बढ़ता भ्रष्टाचार: सांस्कृतिक मूल्यों का संकट पर आधारित पूरा निबंध 2019 (भ्रष्टाचार पर हिंदी निबंध)


 

भ्रष्टाचार: सांस्कृतिक मूल्यों को लीलता जहर:

भ्रष्टाचार मूलतः सांस्कृतिक मूल्यों के क्षरण का प्रतिबिंब है। न केवल भारत बल्कि पूरा विश्व जिस प्रकार मूल्य-निरपेक्ष दृष्टि से आगे बढ़ रहा है। वहाँ भौतिक उपलब्धियाँ ही सब कुछ हैं तथा साधन की पवित्रता अप्रासंगिक हो गई है। इसलिए सवाल में व्याप्त भ्रष्टाचार का ही नहीं है यह पूरे समाज की जीवन-दृष्टि एवं जीवन-व्यवहार का है। हम अपनी आधारभूत जरूरतों को पूरा करने में ही नहीं, अपनी नित्य नई बढ़ती सुविधाओं और विलासिताओं को भी येन-केन प्रकारेण पूरा करने में अंधे बने हुए हैं, यह अर्थोन्माद ही हमारे पारिवारिक, सार्वजनिक एवं राष्ट्रीय जीवन को नष्ट किए हुए है। इसलिए आज सड़क से संसद तक यह बहस छिड़ी हुई है कि इस भ्रष्टाचार को नियंत्रित कैसे किया जाए?

भ्रष्टाचार: इतिहास और वर्तमान स्वरूप:

भ्रष्टाचार हमारे सामाजिक जीवन के हर व्यवहार में व्याप्त है । बच्चे का जन्म-प्रमाण-पत्र प्राप्त करने से लेकर विद्यालय में प्रवेश, ट्यूशन, इंजीनियरिंग-मेडिकल आदि पाठ्यक्रमों में केपीटेशन फीस, राशन कार्ड बनवाने, चपरासी-लिपिक की भी नौकरी प्राप्त करने, स्थानांतरण, ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने, पासपोर्ट बनवाने, न्यायालय में भ्रष्टाचार के विरुद्ध शिकायत करने, शादी में दहेज देने, बैंकों, सहकारी संस्थाओं से ऋण प्राप्त करने, एफ. आई. आर. दर्ज करवाने और अंत में व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर मृत्यु-प्रमाण-पत्र प्राप्त करने आदि सभी कार्यों में किसी-न-किसी नाम से किसी-न-किसी रूप में घूस देनी पड़ती है । भारतीय समाज में भ्रष्टाचार के लेने और देने की मानसिकता इतनी स्थिर हो गई है कि अधिकतर लोग इन दोनों ही क्रियाओं से उद्वेलित नहीं होते।अब उदारीकरण भूमंडलीकरण, निजीकरण, स्वतंत्र व्यापार की प्रतिस्पर्धा के दौर में अंतरराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा नौकरशाहों और राजनेताओं यहाँ तक कि कार की नीतियों को खरीदकर भ्रष्टाचार का ऊपर से नीचे तक ‘वैश्वीकरण‘ किया गया है। भारतीय संदर्भ में यह अपने-आपमें चिंता का विषय है।

भारतीय राजनीति में जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में सन् 1957 क मूंदड़ा कांड.एवं धरमतेजा प्रकरण, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रतापसिंह कैरो द्वारा किया गया भ्रष्टाचार, इंदिरा गाँधी के समय नागरवाला कांड, अंतुले प्रकरण, अर्जुन सिंह का चुरहट लॉटरी कांड, राजीव गाँधी के समय बोफ़ोर्स प्रकरण सामने आए । उसके बाद तो कांडों और घोटालों की झड़ी लग गई। शेयर घोटालों, चीनी घोटाला, झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड, टेलीकॉम घोटाला, यूरिया घोटाला, तहलका प्रकरण, 2जी, कॉमनवेल्थ खेल एवं कोलगेट आदि राजनीतिक भ्रष्टाचार के ऐसे वीभत्स उदाहरण हैं जिनके आधार पर हमारे सार्वजनिक एवं राजनीतिक जीवन की स्वच्छता से जनता का विश्वास उठता जा रहा है। राजनीतिक भ्रष्टाचार के बारे में हमारे प्रधानमंत्रियों की संवेदनशीलता भी स्पष्ट है। इंदिरा गाँधी ने भ्रष्टाचार को अंतरराष्ट्रीय परिघटना कहकर सत्तासीन राजनेताओं के विरुद्ध आवाज़ उठाने को निरर्थक माना था, ‘मिस्टर क्लीन’ राजीव गाँधी ने घोषणा की थी कि विकास कार्यों में 85 प्रतिशत पैसा तो बिचौलियों द्वारा हड़प लिया जाता है और उन्होंने बोफोर्स सौदे में रिश्वत लेने वाले लोगों को बचाने की कोशिश की, नरसिंहाराव तो रिश्वत देने के मामले में न्यायालय द्वारा दंडित हो चुके हैं । 2जी घोटाले में राजा तथा कनिमोहली जेल में रह चुके हैं, कोलगेट में अनेक खदानें रद्द करनी पड़ी हैं। वस्तुत: भ्रष्टाचार हमारी रगों में है, इसीलिए हम भ्रष्ट लोगों को चुनते हैं, सम्मानित करते हैं, राजनीतिक दल भी भ्रष्ट लोगों से परहेज नहीं करते और वे उन्हें टिकिट देते हैं।  भारत जैसे विकासशील देश में जनता में भ्रष्टाचार की सहनशीलता 67 प्रतिशत तक है।

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भ्रष्टाचार के कारण:

यद्यपि भ्रष्टाचार के उदाहरण मौर्यकाल, गुप्तकाल से प्राप्त होते हैं, चाणक्य ने अर्थशास्त्र में भ्रष्टाचार के अनेक रूपों का चित्रण किया है। हर्ष एवं राजपूत काल, सल्तनत काल, मुग़ल काल में भी रिश्वत देकर काम करवाने के उदाहरण मिलते हैं। ब्रिटिश काल में एक ओर प्रशासनिक अनुशासन की स्थापना हुई तो दूसरी ओर शासन के केंद्रीकरण के कारण भ्रष्टाचार संस्थागत रूप में स्थाई भी हुआ लेकिन आज़ादी के बाद राजनीति एवं प्रशासन का सार्वजनिक जीवन में जो दख़ल बढ़ा है, सामाजिक निष्ठा में कमी आई है, राष्ट्रीयता की भावना क्षीण हुई है। औद्योगीकरण के कारण संपत्ति एकत्र करने की भावना बढ़ने, परमिट, लाइसेंस कोटा की व्यवस्था स्थापित करने, उपभोक्तावाद के बढ़ने तथा नैतिक मूल्यों के ह्रास के परिणामस्वरूपक्षभ्रष्टाचार बढ़ा है । बेरोज़गारी, गरीबी, नौकरशाही के विस्तार, अल्प वेतन, दंड देने में ढिलाई, पूंजी-संग्रह की वृत्ति के बढ़ने, अर्थ का दिखावा करने आदि के कारण लोगों की मानसिकता में ही भ्रष्टाचार व्याप्त हो गया है तथा सोच एवं व्यवहार की स्वच्छता का मूल्य नष्ट हो गया है। और अब वैश्वीकरण के दौर में अंतरराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा विकासशील देशों में नौकरशाहों एवं राजनेताओं को रिश्वत देकर व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार बढ़ाया जा रहा है।

भ्रष्टाचार का सामाजिक-जीवन पर दुष्प्रभाव:

भ्रष्टाचार की व्यापकता से पारिवारिक संबंधों में गरिमा, सम्मान और सौहार्द क्षीण होता गया है, वस्तुतः भ्रष्ट परिजन की वास्तविक इज्ज़त परिवार में नहीं हो सकती। भ्रष्टाचार ने ईमानदारी से किए गए श्रम और सादगी के मूल्य को उपहासास्पद बना दिया । भ्रष्टाचार से प्राप्त पैसे ने अपव्यय, कालाबाज़ारी, मद्यपान, जुआ, वेश्यावृत्ति, प्रदर्शन-आडंबर सभी प्रकार के अपराधों को बढ़ावा दिया है । भ्रष्टाचार से राजनीतिक दल, उनमें आपस में टकराव बढ़ा है, चुनावी व्यवस्था भ्रष्ट हो गई है, इसलिए लोकतंत्र पूँजीतंत्र एवं भ्रष्टतंत्र में बदल गया है। अब भ्रष्टाचारियों के नवीनतम संबंध आतंकवादियों से देखे गए हैं। इस प्रकार भ्रष्टाचार का संस्थाईकरण अराष्ट्रीय एवं अमानवीय तत्वों का पोषक हो गया है । वस्तुत: भ्रष्टाचार के कारण हमारे पारिवारिक जीवन से लेकर राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय जीवन की स्वच्छता, पारदर्शिता और गौरव समाप्त हो गया है, हम एक मूल्यहीन स्थिति में पहुंच गए हैं।

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भ्रष्टाचार को दूर करने के प्रयत्न:

यद्यपि सरकारों ने भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए भारतीय दंड प्रक्रिया एवं भारतीय दंड संहिता में परिवर्तन किए हैं, पुलिस में भ्रष्टाचार निरोधक विभाग स्थापित किए गए हैं, कई मंत्रालयों, विभागों एवं सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में सतर्कता संबंधी प्रभाग स्थापित किए हैं, आर्थिक अपराधों की सुनवाई के लिए अलग से न्यायालय स्थापित किए हैं, लोकायुक्त स्थापित किए गए हैं, सूचना अधिकार लागू होने प्रधानमंत्री तक को भष्टाचार में दंडित करने के लिए लोकपाल विधेयक सामने आया है। इन सबके बावजूद भ्रष्टाचार के विरुद्ध राजनीतिक इच्छा न होने तथा जनता की पर्याप्त जागरूकता के अभाव राजनीति और प्रशासन दोनों में भ्रष्टाचार अधिक बढ़ा है और तेजी से बढ़ता जा रहा है।

भ्रष्टाचार कैसे दूर हो?:

भ्रष्टाचार मूलतः सभी देशवासियों के आचरण के उन्नयन का प्रश्न है, यह पत्तों के सींचने से समाप्त नहीं हो सकता । इस मामले में राजनीति न तो हमारा आदर्श-बिंदु हो सकती है और न प्रस्थान बिंदु । भ्रष्ट राजनीति से भ्रष्टाचार पर नियंत्रण रखने की उम्मीद करना साँप से जहर त्याग देने की अपेक्षा रखना जैसा है। भ्रष्टाचार मूलतः एक सांस्कृतिक अभियान का प्रश्न है। शारीरिक भोग की अंतहीन दौड़ हम में व्यवहार की सादगी और स्वच्छता लाने ही नहीं देगी । इसलिए यदि हम अपनी जीवनशैली में सादगी लाएँ, अर्थ-संग्रह और अर्थाटूबर को शोषण और भ्रष्टाचार का प्रतीक मानें तो हमारे सामाजिक मूल्यों में पुनरावर्तन (फिर से लौटना) की प्रक्रिया शुरू हो सकती है। हम ईमानदार लोगों को गौरव दें, सूचना के अधिकार के लिए प्रशासन से संघर्ष करें, भ्रष्टाचारियों के खिलाफ अभियान छेडे़ , ईमानदार लोगों को ही चुनावों में चुनें तो भ्रष्टाचार कम हो सकता है । राजनीति के स्तर पर दंड प्रक्रिया संहिता में कानूनों को कठोर बनाया जा सकता है, चुनाव-सुधार किए जा सकते हैं, चुनाव में ईमानदार लोगों को ही टिकिट दिया जा सकता है, लोकायुक्त और लोकपाल संस्थाओं को मजबूत किया जा सकते है, किंतु सत्तापक्ष से या विपक्ष से, या भ्रष्ट नौकरशाही से ऐसी उम्मीद करना जीवन-यथार्थ को नकारना ही है। भ्रष्टाचार का उन्मूलन मूलतः एक व्यक्तिगत लड़ाई है, स्वयं से लड़ाई और उसके बाद ईमानदार लोगों के संगठित करने और उनके हौसलों को बुलंद करने का काम है । यद्यपि लोकतंत्र में भ्रष्टाचार को रोकने में स्वतंत्र एवं ईमानदार प्रेस की महत्वपूर्ण भूमिका है किंतु गैर-सरकारी संगठनों, सूचना के अधिकार के प्रभावी प्रयोग द्वारा ईमानदार लोग अपनी तटस्थता को छोड़कर जुझारू तेवर दिखाएँ तो भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सकता है।

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सांस्कृतिक मूल्यों के संरक्षण का प्रश्न:

भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी हैं और जड़ों में मट्ठा डालने से ही यह मिट सकता है । देश की राजनीति एवं नौकरशाही से अपेक्षा न कर देश के ईमानदार साहसी लोगों के संगठित सांस्कृतिक समूहों, मंचों के द्वारा भ्रष्टाचार का अभियान छेड़ा जाए और इसे एक व्यक्तिगत जीवन के संघर्ष का आंतरिक हिस्सा बना लिया जाए तो एक नई व्यवहार-संस्कृति विकसित हो सकती है। अन्ना हजारे के ‘एक्शन अगेंस्ट करप्शन’ संगठन ने अरविंद केजरीवाल के ‘आम आदमी पाटी’ राजनीतिक दल ने भ्रष्टाचार के विरोध का जिस तरह से उठाया है उससे ईमानदार लोगों के एकजुट होने का मंच तैयार हुआ है । भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार के विरोध का यह नया तेवर है इससे निश्चित ही भारतीय समाज एवं राजनीति में दूरगामी सकारात्मक परिवर्तन आएँगे। भारतीय समाज को इस प्रकार के अभियानों में सक्रियता दिखानी होगी। यदि हम निष्क्रिय रहे तो एक भ्रष्ट समाज में संपूर्ण विनाश का ही ख़तरा है। हम भ्रष्टाचार से न स्वच्छ राजनीति रख पाएँगे न लोक कल्याणकारी अर्थव्यवस्था ही और न सौहार्दपूर्ण संबंधों वाला परिवार ही। यदि भ्रष्टाचार ऐसे ही बढ़ता रहा तो हम व्यक्ति, परिवार और देश सभी को नष्ट कर देंगे। अतः सांस्कृतिक पतन के इस पहिये की दिशा अनिवार्यतः ऊध्र्वगामी करने की आवश्यकता है।

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