चाणक्य नीति: सोलहवां अध्याय [ हिंदी में ] Chanakya Neeti Hindi

चाणक्य नीति: सोलहवां अध्याय

‘पंडित’ विष्णुगुप्त चाणक्य की विश्व प्रसिद नीति का सोलहवां भाग हिंदी में। चाणक्य नीति: सोलहवां अध्याय (Chanakya Neeti Sixteenth Chapter in Hindi)


न ध्यातं पदमीश्वरस्य विधिवत्संसारविच्छित्तये

स्वर्गद्वारकपाटपाटनपटुर्धमोऽपि नोपार्जितः ।

नारीपीनपयोधरोरुयुगलं स्वप्नेऽपि नालिङ्गितम्,

मातुः केवलमेव यौवनवनच्छेदे कुठारा वयम् ।।

  • जो प्राणी इस संसार के मोहमाया जाल में फंसे हुए हैं और जो इस जाल से बाहर निकलने के लिए न तो वेदों का पाठ करते, न ईश्वर की उपासना करते हैं। न ही अपने लिए स्वर्ग के द्वार खोलने के लिए धर्मरूपी धन का संग्रह करते, न स्वप्न में स्त्री के सुंदर स्तनों व जंघाओं का आलिंगन करते, वे लोग माता के यौवन रूपी वृक्ष को काटने वाले कुल्हाड़े रूप होते हैं।

जल्पन्ति सार्धमन्येन पश्यन्त्यन्यं सविभ्रमाः।

हृदये चिन्तंयन्त्यन्यं न स्त्रीणामेकतो रतिः ।।

  • वेश्याएं बातचीत तो किसी से करती हैं, किन्तु विलासपूर्वक किसी और को देखती हैं तथा उनके मन में भी किसी और का ही चिन्तन होता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि वेश्याओं का प्यार किसी एक के साथ नहीं होता। वह सबकी प्यारी होती हैं, मगर उनका असली प्यार तो धन से होता है।

यो मोहान्मन्यते मूढो रक्तेयं मयि कामिनी।

स तस्या वशगो भूत्वा नृत्येत् क्रीडा-शकुन्तवत् ।।

  • जो मूर्ख अज्ञानी होने के कारण ऐसा समझता है कि यह सुन्दर नारी मुझ से प्रेम करती है। ऐसा आदमी उनके प्रेम जाल में फंसकर कठपुतली की भांति नाचता रहता है।
चाणक्य नीति सोलहवां अध्याय हिंदी में

चाणक्य नीति सोलहवां अध्याय

कोऽर्थानं प्राप्य न गर्वितो विषयिणः कस्यापदोऽस्तं गताः

स्त्रीभिः कस्य न खण्डितं भुवि मनः को नाम राज्ञां प्रियः।

कः कालस्य न गोचरत्वमगमत्कोऽर्थी गतो गौरवं

को वा दुर्जनवागुरासु पतितः क्षेमेण यातः पथि।।

  • ऐश्वर्य को पाकर किसे अभिमान नहीं हुआ, किस विषयलोलुप की विपत्ति नष्ट नहीं हुई? इस दुनिया में नारी के रूप से किसका मन बेचैन नहीं हुआ? सत्य में राजा का प्रिय कौन हुआ? मृत्यु के वश में आज तक कौन नहीं हुआ ? किस याचक ने गौरव पाया? पापी के फंदे में फंसकर इस संसार के मार्ग में कुशलता से कौन वापस आया और कौन गया?

न निर्मितः केन न दृष्टपूर्वः न श्रूयते हेममयः कुरङ्गः।।

तथाऽपि तृष्णा रघुनन्दनस्य विनाशकाले विपरीतबुद्धिः ।।

  • सोने के हिरण की रचना पहले किसने की जबकि उसने न तो सोने का हिरण देखा ही और न ही उसके बारे में कभी सुना। इस पर भी भगवान श्रीराम उस सोने के हिरण को पकड़ने के लिए व्याकुल हो गए। इसे ही कहते हैं कि जब विनाश का समय आता है, तब मनुष्य की बुद्धि उलटी हो जाती है। वह जो कुछ भी सोचता है वह उल्टा होता है। बुद्धि तो वही होती है किन्तु समय ही बुरा आ जाता है। बुरे समय में कोई भी मनुष्य चाहते हुए भी अच्छा काम नहीं कर सकता।

गुणैरुत्तमतां याति नोच्चैरासनसंस्थिताः।

प्रासादशिखरस्थोऽपि काकः किं गरुडायते ।।

  • इन्सान अपने श्रेष्ठ गुणों और अच्छे चरित्र द्वारा ही श्रेष्ठ सिद्ध होता है। ऊंचे आसन पर बैठने से कोई भी पुरुष श्रेष्ठ नहीं बनता। क्या राज भवन की चोटी पर बैठने से कौआ गरुड़ बन सकता है।

गुणाः सर्वत्र पूज्यन्ते न महत्योऽपि सम्पदः।

पूर्णेन्दु किं तथा वन्द्यो निष्कलङ्को यथा कृशः ।।

  • यह मत भूलो कि हर स्थान पर केवल मनुष्य के गुणों का ही सम्मान होता है। यह गुण ही उसे साधारण प्राणी से अलग करते हैं। बहुत धन को इकट्ठा कर लेने वाले पुरुषों को वह सम्मान नहीं मिलता है, जो गुणवानो को मिलता है। जैसा कि बहुत कम चमक और प्रकाश वाला, जिस पर कोई दाग नहीं होता, द्वितीय का चांद जो हर ओर पूजा जाता है। क्या पूर्णिमा का चांद भी ऐसे ही पूजा जाता है? नहीं, बिल्कुल नहीं।

परैरुक्तगुणो यस्तु निर्गुणोऽपि गुणी भवेत्।

इंद्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गुणैः ।।

  • जिस मानव के गुणों की प्रशंसा दूसरे लोग उसकी पीठ के पीछे करें, भले ही वह गुणहीन क्यों न हो परन्तु उसे ही गुणवान माना जाएगा, किन्तु यदि इन्द्र भी अपने मुंह से अपनी प्रशंसा करे तो उसे छोटापन माना जाएगा।

विवेकिनमनुप्राप्ता गुणा यान्ति मनोज्ञताम् ।

सुतरां रत्नमाभाति चामीकरनियोजितम् ।।

  • गुणवान को पाकर बुद्धिमान लोग बड़े खुश होते हैं। जैसे सोने में जड़ा हुआ रत्न देखने में अत्यन्त सुन्दर लगता है।

गुणैः सर्वज्ञतुल्योऽपि सीदत्येको निराश्रयः।

अनर्थ्यमपि माणिक्यं हेमाश्रयमपेक्षते ।।

  • गुणवान पुरुष यदि परमात्मा के समान हो तो भी अकेला होने पर दुःख उठाता है। जैसे बहुत कीमती हीरा भी सोने में जड़े जाने का इंतजार करता है। इसी प्रकार उस गुणवान पुरुष को भी किसी न किसी सहारे की तलाश रहती है।

अतिक्लेशेन ये चार्था धर्मस्यातिक्रमेण तु।

शत्रूणां प्रणिपातेन ते ह्यर्था मा भवन्तु मे।।

  • जो भी धन दूसरों को दुःख पहुंचाकर, धर्म का उल्लंघन करके कमाया जाता है। ऐसे धन को कभी भी स्वीकार न करें। यह पाप का धन आपको भी पापी बना देगा।

किं तया क्रियते लक्ष्म्या या वधूरिव केवला।

या तु वेश्येव सा मान्या पथिकैरपि भुज्यते।।

  • उस धन का क्या लाभ जो कुलवधू की भांति केवल एक ही मनुष्य के उपयोग के लिए हो। धन का असली आनन्द तो वही होता है जो की वेश्या की भांति सबको आनन्द दे।

धनेषु जीवितव्येषु स्त्रीषु चाहारकर्मसु।

अतृप्ताः प्राणिनः सर्वे याता यास्यन्ति यान्ति च ।।

  • धन, दैनिक जीवन, नारी सेवन और विविध प्रकार के अन्न सेवन के विषयों में सारे प्राणी प्यासे रहकर ही चले गए, चले जाएंगे और चले जाते हैं।

क्षीयन्ते सर्वदानानि यज्ञहोम बलिक्रियाः।।

न क्षीयते पात्रदानमभयं सर्वदेहिनाम् ।।

  • अन्न, पानी, कपड़ा, भूमिदान आदि सब प्रकार के दान तथा बह्मयज्ञ, देवयज्ञ आदि सभी समाप्त हो जाते हैं परन्तु सुपात्र को दिया गया दान और प्राणि मात्र को दिया गया अन्नदान कभी भी नष्ट नहीं होते।

तृणं लघु तृणात्तूलं तूलादपि च याचकः ।

वायुना किं न नीतोऽसौ मामयं याचयिष्यति।।।

  • इस संसार में तिनके को सबसे हल्का माना जाता है। किन्तु तिनके से भी हल्की रुई होती है और रुई से भी हल्का याचक होता है। अब प्रश्न यह उठता है कि यदि याचक रुई से भी अधिक हल्का होता है तो उसे हवा उड़ाकर क्यों नहीं ले जाती ? इसका उत्तर यह है कि यह याचक मुझसे भी कुछ न मांग बैठे। इसी कारण वायु उसे उड़ाकर नहीं ले जाती।

वरं प्राणपरित्यागो मानभङ्गे न जीवनात्।

प्राणत्यागे क्षणं दुःखं मानभङ्ग दिने दिने ।।

  • अपमानित होकर जीने से तो मर जाना अधिक अच्छा है, क्योंकि मरते समय केवल क्षण भर ही तो दु:ख होता है। लेकिन अपमानित होने पर तो हर रोज ही दुःख होता है।

प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः ।

तस्मात्तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता ।।

  • जो लोग मीठा बोलते हैं, उन वाणी में प्यार होता है। मीठा एवं मधुर बोलने से तो सभी प्राणी खुश होते हैं। इसलिए कभी भी कड़वा न बोले, कभी भी क्रोध भरे बोल न बोलें, मीठा बोलने से तो प्यार ही प्यार मिलता है।

संसारविषवृक्षस्य द्वे फले अमृतोपमे।

सुभाषितं च सुस्वादु सङ्गतिः सुजने जने।।

  • यह संसार एक विष वृक्ष है। इस पर दो ही प्रकार के फल अमृत के समान लगते हैं। पहला मधुर वचन व दूसरा सज्जनों की संगति । अर्थात मधुरभाषी व्यक्ति शत्रु को भी वशीभूत कर सकता है और जो सज्जन पुरुषों की संगति करता है उसका निश्चय ही कल्याण होता है।

जन्म-जन्मन्यभ्यस्तं दानमध्ययनं तपः ।।

तेनैवाऽभ्यासयोगेन तदेवाभ्यस्ते पुनः ।।

  • मनुष्य ने अनेक ग्रंथों में दान, तप, अध्ययनादि का जो अभ्यास किया, उसी के प्रभाववश वह बारबार उनका अभ्यास करता है। यहां चाणक्य ने भविष्य संवारने के लिए सद्कर्म करने की ओर संकेत किया है।

पुस्तकेषु च या विद्या परहस्तगतं यद्धनम् ।।

उत्पन्नेषु च कार्येषु न सा विद्या न तद्धनम् ।।

  • पुस्तकों में लिपिबद्ध विद्या और पराये हाथों में गया धन आवश्यकता पड़ने पर काम नहीं आते । धन वही होता है जो गांठ का हो और विद्या वही है जिसे जीवन में व्यवहृत किया जाए।
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Written by lokhindi
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