चाणक्य नीति: ग्यारहवां अध्याय [ हिंदी में ] Chanakya Neeti Hindi

चाणक्य नीति: ग्यारहवां अध्याय

‘पंडित’ विष्णुगुप्त चाणक्य की विश्व प्रसिद नीति का ग्यारहवां भाग हिंदी में। चाणक्य नीति: ग्यारहवां अध्याय (Chanakya Neeti The Eleventh Chapter in Hindi )


दातृत्वं प्रियवक्तृत्वं धीरत्वमुचितज्ञता।

अभ्यासेन न लभ्यन्ते चत्वारः सहजा गुणाः ।।

  • दान देने की आदत, मीठा बोलना, शूरत्व, पांडित्य आदि गुण स्वाभाविक होते हैं। यदि कोई प्राणी चाहे कि मैं इन गुणों को अभ्यास करके प्राप्त कर लें तो यह कभी संभव नहीं हो सकता।

आत्मवर्गं परित्यज्य परवर्गं समाश्रयेत् ।।

स्वयमेव लयं याति यथा राजाऽन्यधर्मतः ।।

  • जो लोग अपने धर्म को छोड़कर दूसरे के धर्म का सहारा लेते हैं, वे स्वयं ही ऐसे नष्ट हो जाते हैं, जैसे कोई राजा दूसरे के धर्म का आसरा लेते ही नष्ट हो जाता है। अपना धर्म कैसा भी हो वही अपना होता है, दूसरा तो पराया रहेगा ही।

हस्ती स्थूलतनुः स चाङ्कुशवशः किं हस्तिमात्रोङ्कुशोचाणक्य नीति ग्यारहवां अध्याय

दीपे प्रज्वलिते प्रणश्यति तमः किं दीपमात्रं तमः।

वज्रणापि हताः पतन्ति गिरयः किं वज्रमात्रो गिरिम्

तेजो यस्य, विराजते स बुलवान् स्थूलेषु कः प्रत्ययः ।।

  • हाथी का शरीर तो बहुत बड़ा होता है। फिर भी वह अंकुश के वश में रहता है। आपने कभी सोचा है कि क्या अंकुश हाथी के समान बड़ा है? जैसे दीपक के जलाने से अंधकार नष्ट हो जाता है तो क्या दीपक अन्धकार से बड़ा है ? हथौड़े की चोटों से बड़े-बड़े पत्थर तोड़े जाते हैं। और इन्हीं की सहायता से पहाड़ तोड़े जाते हैं। क्या यह छोटे-छोटे आजार पहाड़ों से बड़े होते हैं ? कुल्हाड़ी से बड़े-बड़े वृक्ष काटकर फेंक दिए जाते हैं तो क्या कुल्हाड़ी वृक्षों से बड़ी होती है ? इन सब प्रश्नों का उत्तर तो यही है कि हर हाथी बड़ा है, बहुत अंधकार दीपक से बड़ा होता है। हथौड़ा बहुत छोटा होता है, कुल्हाडी वृक्षों से बहुत छोटी होती है। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जिसका भी तेज चमकता है, वही बलवान है, वही शक्ति वाला है। केवल बडा और मोटा होने से तो इन्सान शक्तिवान नहीं हो जाता।

कलौ दशसहस्रेषु हरिस्त्यजति मेदिनीम् ।

तदर्थं जाह्नवीतोयं तदर्थं ग्रामदेवता ।।

  • कलियुग के दस सहस्र वर्ष बीत जाने पर भगवान विष्णु इस पृथ्वी को त्याग देते हैं। पांच हजार वर्ष बीत जाने पर गंगा जल पृथ्वी को त्याग देता है। ढाई हजार वर्ष बीत जाने पर ग्राम देवता ग्राम या पृथ्वी को त्याग देता है। विशेष—कुछ विद्वानों और आलोचकों का यह मत है कि ऐसा श्लोक जिसका कोई विशेष अर्थ ही नहीं निकलता, चाणक्य जैसा महापण्डित कैसे लिख सकता है। हो सकता है वे विद्वान अपने स्थान पर ठीक ही हों। मगर मेरे विचार में तो यह श्लोक चाणक्य का ही है, क्योंकि जिस आदमी ने हजारों श्लोकों में दो चार श्लोक यदि ऐसे लिख भी दिए हैं तो यह बड़ी बात नहीं । ऐसे श्लोक को लेकर उसकी आलोचना करना कोई अच्छी बात नहीं। अरे भाई, जिस सागर में से आप मोती निकाल रहे हैं, यदि उसके साथ कुछ सीप भी आ गए हैं तो क्या आप यह कहने लगेंगे कि यह सीप सागर से तो निकल नहीं सकते ? ऐसा मत रखने वाले लोगों के लिए मैं यह कह सकता हूं कि यह श्लोक चाणक्य ने ही लिखा है।

गृहासक्तस्य नो विद्या नो दया मांसभोजिनः।

द्रव्यलुब्धस्य नो सत्यं स्त्रैणस्य न पवित्रता ।।

  • घर में मोह-प्यार रखने वाले विद्यार्थी को कभी विद्या प्राप्त नहीं हो सकती। जो प्राणी मांसाहारी है, उसमें कभी दया नहीं होती। धन के लोभी और लालची लोगों में कभी सच बोलने की आदत नहीं होती। व्यभिचारी में जो लोग पवित्रता हूंढ़ते हैं, वे मूर्ख होते हैं।

न दुर्जनः साधुदशामुपैति बहुप्रकारैरपि शिक्ष्यमाणः ।

आमुलसिक्तः पयसा घृतेन न निम्बवृक्षो मधुरत्वमेति ।।

  • यह एक कटु सत्य है कि पापी लोग अनेक प्रकार से समझाने पर अपने पापों को त्याग नहीं सकते। उनका सज्जन बनना कठिन है। जैसे नीम की जड़ में हर रोज सुबह उठकर दूध-घी और मीठा डाला जाए तो भी वह कभी मीठा नहीं हो सकता।

अन्तर्गतमलो दुष्टस्तीर्थस्नानशतैरपि।

न शुध्यति यथा भाण्डं सुराया दाहितं च यत् ।।

  • जिनका मन ही शुद्ध नहीं है, ऐसे पापी लोग सैकड़ों बार भी तीर्थ स्थानों पर जाएं तो वे कभी शुद्ध नहीं हो सकते। जैसे शराब के बर्तन को यदि जलाया जाए तो भी वह कभी शुद्ध नहीं हो सकता।

न वेत्ति यो यस्य गुणप्रकर्षं स तं सदा निन्दति नाऽत्र चित्रम् ।

यथा किराती करिकुम्भजाता मुक्ताः परित्यज्य विभर्ति गुञ्जाः ।।

  • जो प्राणी जिसके गुणों के विषय में नहीं जानता, वही उसकी निन्दा करता है। यह जरा भी हैरानी की बात नहीं है। जैसे भीलनी हाथी के मस्तक से पैदा होने वाले मोतियों को छोड़कर घुघुची की माला को धारण कर लेती है।

ये तु संवत्सरं पूर्णं नित्यं मौनेन भुञ्जते ।

युगकोटिसहस्रं तु स्वर्गलोके महीयते ।।

  • जो प्राणी एक वर्ष तक मौन रहकर भोजन करते हैं, वे सहस्र करोड़ वर्ष तक स्वर्ग लोक में रहते हैं और वहां पर पूजे भी जाते हैं।

कामं क्रोधं तथा लोभं स्वादं शृङ्गारकौतुके।

अतिनिद्राऽतिसेवे च विद्यार्थी ह्यष्ट वर्जयेत् ।।

  • हर विद्यार्थी को चाहिए कि वह काम, क्रोध, लोभ, मोह, स्वाद, शृंगार, खेल-कूद, घूमना-फिरना, अधिक सोना आदि का दृढ़ता से त्याग कर दे। तभी वह अपनी शिक्षा को सार्थक कर सकता है।

एकाहारेण सन्तुष्टः षट्कर्मनिरतः सदा।

ऋतुकालाभिगामी च स विप्रो द्विज उच्यते।।

  • एक समय का भोजन करके ही संतुष्ट होकर अपना अध्ययन और अध्यापन, छः कर्मों में तत्पर रहने वाले और ऋतुकाल में स्त्री से सहवास करने वाले को द्विज कहते हैं।

अकृष्टफलमूलेन वनवासरतः सदा।

कुरुतेऽहरहः श्राद्धमृषिर्विप्रः स उच्यते।।

  • जो लोग बिना जोती हुई धरती से फल-फूल और कन्दमूल फल खाकर अपना जीवन व्यतीत करना चाहते हैं, जो सदा बनवास में ही अनुराग रखते हैं और प्रतिदिन श्राद्ध करते हैं। ऐसे ब्राह्मण ऋषि कहलाने के हकदार होते हैं।

लौकिके कर्मणि रतः पशूनां परिपालकः ।।

वाणिज्यकृषिकर्ता यः स विप्रो वैश्य उच्यते।।

  • जो ब्राह्मण लौकिक कर्मों में संलग्न हो, पशुओं को पालता हो, कारोबार अथवा खेती करता हो उसे ब्राह्मण नहीं वैश्य कहते हैं।

लाक्षादितैलनीलानां कुसुम्भमधुसर्पिषाम् ।

विक्रेता मद्यमांसानां स विप्रः शूद्र उच्यते।।

  • जो ब्राह्मण लाख (लाक्षा), तेल, नील (वस्त्र रंगने का रंग), शहद, घी, मदिरा, मांस आदि का विक्रय करता है उसे शूद्र कहते हैं।

परकार्यविहन्ता च दाम्भिकः स्वार्थसाधकः ।

छली द्वेषी मृदुः क्रूरो विप्रो मार्जार उच्यते।।

  • जो दूसरे लोगों के कामों को बिगाड़कर ढोंग रचता हो, क्रूर हो, अन्दर से पापी हो, ऐसे ब्राह्मण को मार्जार (विडाल ) कहते हैं।

वापी-कूप-तडागानामाराम-सुर-वेश्मनाम् ।

उच्छेदने निराऽऽशङ्कः स विप्रो म्लेच्छ उच्यते ।।

  • जो ब्राह्मण कुआं, तालाब एवं बागों और मंदिरों की तोड़-फोड़ करता हो, वह सबसे बड़ा मलेच्छ कहलाता है।

देवद्रव्यं गुरुद्रव्यं परदाराऽभिमर्शनम् ।

निर्वाहः सर्वभूतेषु विप्रश्चाण्डाल उच्यते ।।

  • जो ब्राह्मण विद्वानों और गुरुजनों के धन की चोरी करता हो, पराई नारियों के साथ संभोग करता हो और हर अच्छे-बुरे प्राणी से निबाह करे, बुरे-भले की पहचान खत्म कर दे, वह चाण्डाल कहलाता है।

देयं भोज्यधनं सदा सुकृतिभिर्गो सञ्चितव्यं कदा

श्रीकर्णस्य बलेश्च विक्रमपतेरद्यापि कीर्तिः स्थिता।

अस्माकं मधु दानभोगरहितं नष्टं चिरात्सञ्चितं ।

निर्वाणादिति पाणिपादयुगले घर्षन्त्यहो मक्षिकाः ।।

  • पुण्यात्माओं का भोग करने योग्य धन सदा दान देने के लिए होता है। वे कभी भी उसका उपयोग नहीं करते। क्योंकि दान देने के कारण ही दानवीर कर्ण, महाराज बलि और विक्रमादित्य की कीर्ति आज भी अक्षुण्ण है। दान और भोग से रहित मधुमक्खियों का आदिकाल से संचित किया हुआ मधु नष्ट हो गया। ऐसा सोचकर मधुमक्खियां अपने दोनों हाथ और पांव मलती हैं। यह उनकी उस भूल का पश्चाताप है।
  1. चाणक्य नीति: प्रथम अध्याय / दूसरा अध्याय / तीसरा अध्याय / चौथा अध्याय / पांचवां अध्याय / छठा अध्याय / सातवां अध्याय /     आठवां अध्याय / नौवां अध्याय / दसवां अध्याय

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Written by lokhindi
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