चाणक्य नीति: दसवां अध्याय [ हिंदी में ] Chanakya Neeti Hindi
चाणक्य नीति: दसवां अध्याय
‘पंडित’ विष्णुगुप्त चाणक्य की विश्व प्रसिद नीति का दसवां भाग हिंदी में। चाणक्य नीति: दसवां अध्याय ( Chanakya Neeti The Tenth Chapter in Hindi )
धनहीनो न हीनश्च धनिकः स सुनिश्चयः ।
विद्यारत्नेन यो हीनः स हीनः सर्ववस्तुषु।।
- जो प्राणी निर्धन है, गरीब है वह धन से हीन नहीं है। यदि वह विधा रूप धन रखता है तो इसमें क्या संदेह है कि वह धनवान है। उसके पास विद्या का धन है। विद्या तो ऐसा धन है जो सबसे अनमोल है। परन्तु जिन लोगों के पास विद्या धन नहीं है, वे सभी चीजों से हीन माने जाते हैं।
दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं पिबेज्जलम् ।
शास्त्रपूतं वदेद् वाक्यं मनः पूतं समाचरेत् ।।
- हर मानव के लिए यह जरूरी है कि वह नीचे धरती पर अच्छी तरह देखकर ही अपने कदमों को आगे बढ़ाए। जल को कपड़े से छानकर पीए । शास्त्रों के अनुसार ही सोच-समझकर वचन बोले तथा मन में सोच-विचार करके ही श्रेष्ठ और शुभ व्यवहार करे। ऐसे ही लोग उन्नति करते हैं और समाज में सम्मान पाते हैं।
सुखार्थी वा त्यजेद्विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ।
सुखार्थिनः कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतो सुखम् ।।
- जो प्राणी सुख की अभिलाषा करते हैं, उन्हें विद्या प्राप्ति की आशा छोड़ देनी चाहिए। जिसे विद्या प्राप्ति की इच्छा हो उसे संसारी सुखों का त्याग करना होगा। क्योंकि जो भी प्राणी सुख चाहते हैं, उन्हें विद्या प्राप्त नहीं होती और विद्यार्थी को सुख नहीं मिल सकता ।
कवयः किं न पश्यन्ति किं न कुर्वन्ति योषितः ।
मद्यपाः किं न जल्पन्ति किं न भक्षन्ति वायसाः ।।
- कवि लोग हर चीज को देखते हैं। औरत क्या नहीं कर सकती ? नशे में डूबा प्राणी क्या नहीं कर सकता और कौए क्या नहीं खाते ?
रंकं करोति राजानं राजानं रंक मेव च।।
धनिनं निर्धनं चैव निर्धनं धनिनं विथिः ।।
- यह अटूट सत्य है कि ईश्वर कंगाल को राजा और राजा को कंगाल बना देता है। ईश्वर की ही यह शक्ति है कि वह धनी को निर्धन और निर्धन को धनी बना देता है।
लुब्धानां याचकः शत्रुर्मूर्खाणां बोधकः रिपुः ।।
जारस्त्रीणां पतिः शत्रुश्चोराणां चन्द्रमा रिपुः ।।
- मांगने वाला हर लालची का शत्रु होता है। मूर्खो का शत्रु सदुपदेश देने वाला होता है। पति चरित्रहीन स्त्री का शत्रु होता है और चारों का शत्रु चन्द्रमा होता है।
येषां न विद्या न तपो न दानं न ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।।
- जिन लोगों के पास न तो विद्या है और न ही वे तपस्या करते हैं, न ही वें दान देते हैं, न ही उनमें धैर्य और शीलता है, न ही दूसरों का भला करके अपने धर्म का पालन करते हैं। ऐसे लोग धरती पर पशुओं की भांति बोझ हैं। उनमें और पशुओं में कोई अंतर नहीं होता।
अन्तःसारविहीनानामुपदेशो न जायते।
मलयाचलसंसर्गात् न वेणुश्चन्दनायते।।
- मन की योग्यता न रखने वाले, बुरे विचारों वाले प्राणियों पर ज्ञान एवं उपदेश का कोई असर नहीं होता। जैसे मलयगिरी से आने वाली पवन के स्पर्श से बांस चन्दन नहीं बन सकता।
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम् । ।
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति ।।
- जो लोग बुद्धिहीन हैं, शास्त्र भी उनका कल्याण नहीं कर सकते । जैसे अन्धे लोगों के लिए दर्पण बिल्कुल बेकार होता है। मगर दर्पण अपनी चमक से उनकी आंखों का प्रकाश तो वापस नहीं ला सकता।
दुर्जनं सज्जनं कर्तुमुपायो न हि भूतले ।
अपानं शतधा थोतं न श्रेष्ठमिन्द्रियं भवेतू ।।।
- ऐसा कोई उपाय नहीं है जिससे पापी आदमी सज्जन बन सके। क्योंकि गुदा को भले ही कितनी बार धोया जाए लेकिन फिर भी वह मुख नहीं बन सकती।
आत्मद्वेषात् भवेन्मृत्युः परद्वेषात् धनक्षयः।
राजद्वेषात् भवेन्नाशो ब्रह्मद्वेषातू कुलक्षयः ।।
- अपनी ही आत्मा से द्वेष करने से इन्सान की मृत्यु हो जाती है। शत्रु से द्वेष करने से धन का नाश हो जाता है। राजा से द्वेष करने से स्वयं का नाश होता है और ब्राह्मण से द्वेष करने से कुल का नाश हो जाता है।
वरं वनं व्याघ्रगजेन्द्रसेवितं द्रुमालयं पत्रफलाम्बुभोजनम् ।
तृणेषु शय्या शतजीर्णवल्कलं न बन्धुमध्ये धनहीनजीवनम् ।।
- जिस जंगल में वृक्ष ही घर होते हैं, पत्तों और फलों से ही भोजन का काम लिया जाता है तथा नदी का जल पीकर ही गुजारा किया जाता हो। रात को घास पर सोकर ही गुजारा करना हो, फटे-पुराने वस्त्र पहनकर ही समय काटने की व्यवस्था हो । ऐसे शेरों और हाथियों से भरे वन में रहना अच्छा है। परन्तु अपने सगे-सम्बन्धियों और मित्रों के बीच ऐसा गरीबी वाला जीवन व्यतीत करना अच्छा नहीं है।
विप्रो वृक्षस्तस्य मूलं च सन्ध्या वेदाः शाखा धर्मकर्माणि पत्रम् ।
तस्मान्मूलं यत्नतो रक्षणीयं छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम् ।।
- ब्राह्मणरूपी वृक्ष की जड़ संध्या है। वेद उसकी टहनियां हैं। धर्म-कर्म उसके पत्ते हैं। इसलिए इस जड़ की रक्षा पूरे यत्न से करनी चाहिए, क्योंकि जब जड़ कट जाती है तो पत्ते-टहनियां सब नष्ट हो जाते हैं।
माता च कमलादेवी पिता देवो जनार्दनः ।
बान्धवा विष्णुभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम् ।।
- जिसकी मां लक्ष्मी हो, जिसके पिता सर्वशक्तिमान प्रभु हों, भक्त जिसके सज्जन बन्धु हों। ऐसे लोगों के लिए तीनों लोक ही अपने देश के समान हैं।
एकवृक्षसमारूढा नाना वर्णा विहङ्गमाः।
प्रभाते दिक्षु दशसु गच्छन्ति का तत्र परिवेदना ।।
- अनेक रंग-रूपों वाले पक्षी शाम ढलते ही एक वृक्ष पर आकर बैठते हैं और सुबह होते ही अलग-अलग दिशाओं में उड़ जाते हैं। एक वृक्ष, किन्तु मंजिल अलग-अलग के यह पक्षी, इनकी रहने की एकता देखकर हम प्राणियों को अपने-अपने परिवार में भी ऐसी ही एकता का रंग लाना चाहिए। एक घर में ही इन पक्षियों की भांति एक साथ रहते हुए अपना जीवन व्यतीत करें तो कितना आनन्द प्राप्त हो।
बुद्धिर्यस्य बलं तस्य निर्बुद्धेस्तु कुतो बलम् ।।
वने सिंहो मदोन्मत्तः शशकेन निपातितः ।।
- जिसके पास बुद्धि है, उसी के पास बल है। बुद्धिहीन के पास बल कहां? क्या आपको याद नहीं कि एक वन में बुद्धिमान खरगोश ने शेर को मार डाला था।
का चिन्ता मम जीवने यदि हरिर्विश्वम्भरो गीयते ।
नो चेदर्भकजीवनाय जननीस्तन्यं कथं निर्मयेत्।
इत्यालोच्य मुहुर्मुहुर्यदुपते लक्ष्मीपते केवलं
त्वत्पादाम्बुजसेवनेन सततं कालो मया नीयते ।।
- जब हम ईश्वर को इस संसार का पालनहार कहते हैं तो फिर हम अंपने खाने-पीने की क्यों चिन्ता करते हैं? यदि ईश्वर संसार का पालनहार न होता तो बच्चे के जन्म के साथ ही उसकी मां के स्तनों में दूध कहां से आने लगता। बार-बार ऐसा विचार कर हे प्रजापते! मैं सदा आपके चरणों में अपना समय व्यतीत करता हूं।
गीर्वाणवाणीषु विशिष्टबुद्धिस्तथापि भाषान्तरलोलुपोऽहम् ।
यथा सुराणाममृते स्थितेऽपि स्वर्गाङ्गनानामधरासवे रुचिः ।।
- चाणक्य कहते हैं कि यद्यपि मैं संस्कृत भाषा में विशेष बुद्धि और अच्छा ज्ञान रखता हूं, इस पर भी मैं दूसरी भाषाओं का लोभी हूं। जैसे अमृत का पान करने वाले देवताओं की इच्छा भी स्वर्ग की अप्सराओं के साथ मन बहलाने की होती है।
अन्नाद् दशगुणं पिष्टं पिष्टादू दशगुपां पयः।
पयसोऽष्टगुणं मांसं मांसाद् दशगुणं घृतम् ।।
- चावल से दस गुणा ताकत आटे में, आटे से दस गुणा ताकत दूध में, दूध से आठ गुना ताकत मांस में और मांस से दस गुणा ताकत देसी घी में होती है।
शाकेन रोगा वर्धन्ते पयसा वर्धते तनुः ।।
घृतेन वर्धते वीर्यं मांसान्मांसं प्रवर्धते ।।
- साग से बीमारियां पैदा होती हैं। दूध पीने से शरीर की पुष्टि तथा वृद्धि होती है, घी खाने से वीर्य बढ़ता है और मांस खाने से मांस बढ़ता है।
- चाणक्य नीति: प्रथम अध्याय
- चाणक्य नीति: दूसरा अध्याय
- चाणक्य नीति: तीसरा अध्याय
- चाणक्य नीति: चौथा अध्याय
- चाणक्य नीति: पांचवां अध्याय
- चाणक्य नीति: छठा अध्याय
- चाणक्य नीति: सातवां अध्याय
- चाणक्य नीति: आठवां अध्याय
- चाणक्य नीति: नौवां अध्याय
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