पाप या पुण्य कहानी – बच्चों की हिंदी में कहानी

पाप या पुण्य कहानी

मनुष्य जो कुछ करता है उसे यह मालूम रहता है कि वह पाप कर रहा है या पुण्य: इसी पर आधारित एक सन्यासी और सर्प की हिंदी कहानी


किसी समय में चरवाहों के एक गाँव में एक विशाल वृक्ष के नीचे बिल में विषधर नामक एक लम्बा-काला सर्ष रहता था। वृक्ष गाँव के एक खेत के कोने में था। वहाँ पर जो भी जाता विषधर उसे डस लेता और वह व्यक्ति तत्काल ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता। सर्ष के डर के कारण लोगों ने उधर जाना ही छोड़ दिया।

गाँव के चरवाहे लड़के जब अपनी गायों को जंगल चराने जाते तो रास्ते में वही खेत पड़ता। चरवाहे लड़के इस बात का बहुत ध्यान रखते कि वे सदैव पगडंडी पर चलें और भूल कर भी उस वृक्ष के निकट न जाएं।

मगर इतनी सावधानी बरतने पर भी कोई-न-कोई उधर चला ही जता और काल का ग्रास बन जाता।

एक दिन संध्या के समय गाँव में एक संन्यासी आए। वे उसी पगडण्डी से गुजर रहे थे, जिससे चरवाहे गुजरते थे। संयोगवश चरवाहे लड़के जंगल से वापस लौट रहे थे।

इधर संन्यासी किसी शान्त स्थल की खोज में थे जहाँ पर बैठ कर वे ईश्वर का ध्यान कर सके।

तभी उनकी नजर उसी विशाल वृक्ष पर गयी, जहाँ विषधर सर्प रहता था। संन्यासी ने चरवाहे लड़कों से पूछा-“लड़कों यह खेत किसका है? मुझे उस वृक्ष के नीचे ध्यान लगाना है, खेत मालिक नाराज तो नहीं होगा?”

“खेत मालिक तो कुछ नहीं कहेगा बाबा.. ।”

एक लड़के ने कहा-“मगर आप वहाँ मत जाना, वहाँ विषधर नाम का एक लम्बा-काला नाग रहता है। वह अत्यधिक क्रोधी है, यदि आप वहाँ गये तो वह डस लेगा ।”

“ओह! यह बात है, चलो कोई बात नहीं, मैं वहाँ जाकर ध्यान लगा लुगा।” कहकर संन्यासी उस विशाल वृक्ष की ओर चल दिये।

“चलो-चलो। यह बाबा अब बचेंगे नहीं।” किसी लड़के का स्वर उभरा और सभी लड़के अपनेअपने घर चले गये।

इधर संन्यासी सर्प के बिल के पास पहुंचे ही थे कि विषधर नामक वह लम्बा काला सर्प फुर्ती से बाहर आया और फन उठाकर कुंफकारने लगा।

संन्यासी ने तेजी से कोई मन्त्र पढ़ा और अगले ही पल विसधर का सिर झुकता चला गया। वह निढाल होकर जमीन पर लेट गया। संन्यासी ने कहा-“देखो मैं ईश्वर का ध्यान करुँगा। तुम विघ्न मत डालना, समझे?” कहकर संन्यासी वहीं वृक्ष के पास ध्यान में लीन हो गये। और सर्ष वहीं पड़ा रहा।

धीरे-धीरे मन्त्रोच्चारण करते हुए संन्यासी की आंखें मुद गईं, उनका सम्बन्ध दुनिया से टूट गया और सीधे ईश्वर से जाकर जुड़ गया।

और कई घन्टे बाद जब संन्यासी की आंखें खुलीं तो उन्होंने देखा कि विषधर उसी तरह निढाल-सा जमीन पर पड़ा है। उन्होंने मुस्कुरा कर सर्ष से पूछा-“तुम अभी यहीं हो?”

“जी महाराज !” सर्प ने जवाब दिया।

“तुम सुधर क्यों नहीं जाते, तुम जानते हो कि तुम्हारे जहरीले डस से लोगों की मृत्यु हो जाती है।” संन्यासी ने विनम्रता से कहा।

“मैं खुद यही चाहता हूँ महाराज कि मैं सुधर जाऊँ, मगर क्या कहूँ मुझे आदत-सी पड़ गयी है।” विषधर बोला।

“मैं तुम्हें एक ऐसा मन्त्र दूंगा जिसके जाप से तुम्हारा स्वभाव नम्र हो जाएगा।”

“ठीक है महाराज ।”

फिर संन्यासी ने सर्प को एक मन्त्र सिखा दिया और कहा-“मैं एक वर्ष पश्चात् फिर आऊँगा, इस मन्त्र का जाप मत छोड़ना।” कहकर संन्यासी वापस चले गये।

जब वे वापस लौट रहे थे तो रास्ते में उन्हें चरवाहे लड़के मिले । उन्होंने संन्यासी को जीवित देखकर पूछा-“महाराज! उस नाग ने आपको कुछ नहीं कहा?” चरवाहे लड़के आश्चर्यचकित संन्यासी को तके जा रहे थे।

“नहीं-उसने मुझे कुछ नहीं कहा और हाँ, अब वह एक अच्छा सर्प बन गया है, अब वह किसी को कुछ नहीं कहेगा।” कहकर संन्यासी आगे बढ़ गये।

मगर चरवाहे लड़के यह सुनकर जड़वत् से रह गये थे। उन्हें विश्वास नहीं आ रहा था कि जो कुछ संन्यासी कह रहे हैं, वह सब सच है। मगर संन्यासी को जीवित देखकर उन्हें विश्वास भी करना पड़ा।

फिर जल्द ही यह बात सारे गाँव में जंगल की आग की तरह फैल गई कि वृक्षवाला सर्प नम्र स्वभाव का हो गया है।

असल में हुआ यह था कि एक चरवाहा लड़का भूल से वृक्ष वाले सर्प के सामने पड़ गया, वह सर्ष के इतना नजदीक था कि यदि सर्प चाहता तो एक ही झटके में उसे समाप्त कर सकता था। मगर उसने लड़के को कुछ भी नहीं कहा। और वापस अपने बिल में चला गया।

यह सब कुछ बहुत-से लोगों ने अपनी आँखों से देखा और इस पर विश्वास किया।

फिर जैसे-जैसे समय बीतता गया। गाँव वालों ने देखा कि सर्प बहुत नम्र स्वभाव का होता जा रहा है। धीरे-धीरे गाँव वाले उसका डर भूल गये। अब वह किसी को भी नहीं काटता था।

सर्ष भी आराम से अपना जीवन-यापन करने । अब वह घास फल-फूल आदि खाकर पेट भरता था, जीवों का भक्षण करना उसने पूरी तरह त्याग दिया था।

पाप या पुण्य कहानी हिंदी में

मगर वक्त को यह शान्ति मन्जूर न थी। जैसे-जैसे सर्प नम्र स्वभाव अपनाता गया। उसकी मुश्किलें बढ़ने लगीं।

अब जब भी चरवाहे लड़के खेत से गुजरते, विषधर को पत्थर मारे बिना ना रहते, मगर वह इस ओर विशेष ध्यान न देता। कभी कोई पत्थर उड़ता हुआ उसकी पीठ या शरीर के किसी हिस्से से आकर टकराता और वहाँ से खून बहने

लगता, मगर संन्यासी द्वारा दिये गये मन्त्र के प्रभाव से उसका हृदय इतना कोमल और सहनशील हो गया था कि वह किसी को कुछ ना कहता और ना कभी क्रोधित होता।

मगर यह मनुष्य जाति भी ईश्वर ने अजीब चीज़ बनाई है। यह जिस वस्तु से डरती है, उसका नाम तक लेना पसन्द नहीं करती और जिस वस्तु को डराती है, उसके प्राण लिए बिना छोड़ती नहीं। इस जाति के सामने यदि कोई शक्तिशाली ताकतवर और दबंग है तो यह उसके सामने घुटने तक टिका देती है, लेकिन यदि इसके सामने कोई अच्छा और नर्म स्वभाव बनना चाहे तो यह उस पर जुल्म करती है और उसे वापस उसी स्वभाव को अपनाने पर उतारू करती है, जिसे वह छोड़ना चाहता है।

मगर जो स्वभाव के हठीले व दृढ़ होते हैं वे मरते दम तक वापस नहीं लौटते और संन्यासी के मन्त्र ने विषधर के मन को हठीला और दृढ़ बना दिया था।

एक दिन संध्या के समय चरवाहे लड़के जंगल से लौट रहे थे कि उनकी नजर विषधर पर पड़ी। उन्होंने विषधर को पत्थर मारने शुरू कर दिये। विषधर पिटता रहा मगर कुछ बोला नहीं।

तभी एक लड़के ने यह सोचकर कि विषधर कुछ कहेगा तो है नहीं, उसकी पूंछ पकड़ ली और हवा में घुमाने लगा।

दूसरे लड़के यह देखकर खिलखिला पड़े, साथ ही वे उस लड़के का साहस भी बढ़ा रहे थे। कुछ देर तक विषधर को घुमाने के बाद लड़के ने विषधर की पूँछ छोड़ दी।

विषधर हवा में तैरता हुआ एक पत्थर से जा टकराया और वहीं अधमरा-सा हो गया।

चरवाहे लड़के हँसते-खिलखिलाते वापस लौट गये । इधर बिषधर को कुछ होश आया तो वह धीरे-धीरे रेंगता हुआ अपने बिल में आ गया और सो गया।

उसके बाद किसी ने भी विषधर को बिल से बाहर आते-जाते नहीं देखा।

एक वर्ष पश्चात् वही संन्यासी वहाँ आए। वे विषधर के बिल के पास पहुँचे और विषधर को आवाज लगाई-विष्धर देखो मैं आया हूँ।” मगर यह क्या?

संन्यासी के कई बार आवाज लगाने पर भी सर्प बाहर न आया। तब संन्यासी ने अपने तपोबल से सर्प की स्थिति जानना चाही और यह देखते ही वे उदास हो गये कि विषधर अपने बिल में मृत पड़ा है। उन्होंने तपोबल से उसकी मृत्यु का कारण जान लिया। कारण जानते ही वे रोने लगे। वे सोच रहे थे कि “आज तक मैंने कोई पाप नहीं किया था, मगर आज ये मुझसे कैसा पाप हो गया? मैं स्वयं भी नहीं कह सकता कि यह पाप है या पुण्य ।”

शिक्षा- “मनुष्य जो कुछ करता है उसे अवश्य यह मालूम रहता है कि वह पाप कर रहा है या पुण्य : मगर कुछ काम अनजाने में ऐसे भी कर गुजरता है जिसका उसे स्वयं पता नहीं होता कि अमुक कार्य उसके लिए पुण्य का है या पाप का? इसलिये कोई भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिसका स्वयं को भी ज्ञान न हो।”

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Written by lokhindi
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