मुंशी प्रेमचंद : हिंदी में निबंध

मुंशी प्रेमचंद हिंदी में निबंध

उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद पर आधारित सम्पूर्ण हिंदी में निबंध। Essay in Hindi based on the novel Samrat Munshi Premchand, प्रेमचंद हिंदी और उर्दू के विश्व विख्यात लेखक थे। मुंशी प्रेमचन्द जी हिंदी में कहानी और उपन्यासों के लेखन के लिए एक नए मार्ग का निर्माण किया था।


भूमिका:

प्रेमचंद हिंदी और उर्दू के विश्व विख्यात लेखक थे। मुंशी प्रेमचन्द जी हिंदी में कहानी और उपन्यासों के लेखन के लिए एक नए मार्ग का निर्माण किया था। इन्होंने हिंदी लेखन कार्यों में एक ऐसी नींव डाली थी। उसके बिना हिंदी के विकास का अध्यापन कार्य अधुरा होता है। प्रेमचंद को मुंशी प्रेमचंद के नाम से पहचाना जाता है जो कि एक सचेत नागरिक, संवेदनशील लेखक और सकुशल प्रवक्ता थे।

हमारे हिंदी साहित्य को उन्नत बनाने के लिए अनेक लेखकों ने अपना योगदान दिया है। हर लेखक का अपना महत्व होता है परन्तु मुंशी प्रेमचंद जैसा लेखक किसी देश को बड़े सौभाग्य से प्राप्त होता है। अगर उन्हें भारत का गोर्की कहा जाये तो इसमें कुछ गलत नहीं है। मुंशी प्रेमचंद जी के लोक जीवन का व्यापक चित्रण और सामाजिक समस्याओं के गहन अध्ययन को देखकर कहा जा सकता हैं कि मुंशी प्रेमचंद के उपन्यासों में भारतीय जीवन के मुंह बोलते हुए चित्र देखने प्राप्त होते हैं।

प्रिय लेखक:

मुंशी प्रेमचंद जी हम सबके सबसे प्रिय लेखक हैं। मुंशी प्रेमचंद ने एक दर्जन उच्चकोटि के उपन्यासों को लिखा हैं और तीन सौ से भी अधिक कहानियाँ रचकर हिंदी साहित्य को आगे बढ़ाया है। मुंशी प्रेमचन्द जी के उपन्यासों में कर्म भूमि, गोदान और सेवासदन आदि प्रसिद्ध हैं। उनकि कहानियों में कफन और पूस की रात अत्यधिक मार्मिक हैं। मुंशी प्रेमचन्द जी कि कहानियाँ जन जीवन का मुंह बोलता हुआ चित्रण प्रस्तुत करती हैं।

प्रिय लगने का कारण:

मुंशी प्रेमचंद जी साहित्य में अशलीलता और नग्नता के कट्टर विरोधी थे। मुंशी प्रेमचंद का मानना है कि साहित्य समाज का आयना है जो उसका ही चित्रण करता है परन्तु साथ ही साथ समाज के आगे एक ऐसा आदर्श प्रस्तुत करता है जिससे लोग अपने साहित्य समाज के सामने अपना चरित्र ऊँचा उठा सकते हैं। मुंशी प्रेमचंद के उपन्यासों के अनेक पात्र धनिया, होरी, सोफी, जालपा, निर्मला आदि सभी आज भी जीते जागते पात्र ही महसुस होते हैं।

गरीबों का जीवन लिखने पर उन्हें विशेष सफलता प्राप्त हुई है। प्रेमचंद जी की भाषा अत्यधिक सरल है परन्तु मुहावरो का भी प्रयोग किया गया है। भारत में हिंदी का प्रचार-प्रसार करने में मुंशी प्रेमचंद के उपन्यासों ने अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मुंशी प्रेमचंद ने ऐसी भाषा का अपने लेखन में प्रयोग किया जिसे लोग आसानी से समझते और जानते थे। इसी कारण से मुंशी प्रेमचंद जी के अन्य लेखकों की तुलना में अधिक उपन्यास बिके थे।

मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय

परिचय :

Munshi Premchand

बचपन का नाम – धनपत राय श्रीवास्तव, 

नाम से प्रसिद्ध हुए – मुंशी प्रेमचंद 

जन्म – 31 जुलाई, 1880, लम्ही, उत्तर पश्चिम, ब्रिटिश भारत

पिता – अजीब लाल

माता – आनंद देवी

व्यवसाय –  लेखक और उपन्यासकार

भाषा – हिंदी और उर्दू

राष्ट्रीयता – भारतीय

प्रसिद्ध लेख – गोदान, बाज़ार-ए-हुस्न, कर्मभूमि, शतरंज के खिलाडी, गबन

पत्नी- शिवरानी देवी

बच्चों के नाम – श्रीपत राय, अमृत राय, कमला देवी

मृत्यु – 8 अक्टूबर 1936 को 56 वर्ष की आयु में वाराणसी, बनारस स्टेट, ब्रिटिश भारत। 

 मुंशी प्रेमचन्द जी को भारत का उपन्यास सम्राट माना जाता हैं जिनके युग का कालखण्ड सन् 1880 से 1936 तक है। यह कालखण्ड भारत के इतिहास में बहुत महत्त्व रखता है। इस युगकाल में भारत का स्वतंत्रता-संग्राम कई महत्वपूर्ण स्तरों से गुजरा है। प्रेमचंद का मूल नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। वे एक सफल लेखक, कुशल वक्ता, जिम्मेदार संपादक एवं संवेदनशील रचनाकार थे। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जब हिन्दी में कार्य करने की तकनीकी व्यवस्था नहीं थीं फिर भी इतना काम करने वाला लेखक मुंशी प्रेमचंद जी अलावा कोई दूसरा नहीं हुआ। 

मुंशी प्रेमचंद के बारे में

प्रारंभिक जीवन:

मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31जुलाई, 1880 को वनारस के पास एक गाँव लम्ही में, औपनिवेशिक भारत के टाईम हुआ था। उनके फादर अजीब राय, पोस्ट ऑफिस में एक क्लर्क का कार्य करते थे और उनकी माता आनंदी देवी एक गृहणी थी। प्रेमचंद जी के माता – पिता के चार संतान थी।

मुंशी प्रेमचंद जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मदरसा, लालपुर में उर्दू और फारसी शिक्षा के रूप में ग्रहण की। उसके बाद मुंशी प्रेमचंद जी ने अपनी अंग्रेज़ी की पढाई एक मिशन स्कूल से पूर्ण किया।

जब मुंशी प्रेमचंद कि आयु आठ वर्ष थी तब उनकी माता जी मृत्यु हो गयी थी। उनके पिताजी ने दूसरी शादी भी की थी। मुंशी प्रेमचंद अपने सौतेली माँ से अच्छे से घुल मिल नहीं पाये थे और ज्यादातर समय वो दुखी और तन्हाई में गुजारा करते थे। वे अकेलापन दुर करने के लिए वो अपना समय किताबे पढने में लगाया करते थे और ऐसा करते-करते वे किताबों के शौक़ीन बन गए।

सन् 1897 में उनके फादर की मृत्यु हो गयी और उसके बाद मुंशी प्रेमचंद ने अपनी पढाई छोड़ दी।

मुंशी प्रेमचंद जन्म और विवाह:

मुशीं प्रेमचंद का जन्म वाराणसी से लगभग चार मील दूर, लमही नामक एक गांव में 31 जुलाई, 1880 को हुआ था। प्रेमचंद के पिताजी का नाम मुंशी अजायब लाल और माताजी का नाम आनन्दी देवी थी। मुंशी प्रेमचंद का बचपन गांव में बीता था। मुंशी प्रेमचंद जी का कुल दरिद्र कायस्थों का था, जिनके पास लगभग छ: बीघा जमीन थी और जिनका परिवार काफी बड़ा था। प्रेमचंद के दादा जी, मुंशी गुरुसहाय लाल, पटवारी का कार्य करते थे। उनके पिता, मुंशी अजायब लाल, डाकमुंशी का कार्य करते थे और उनका वेतन लगभग पच्चीस रुपए महिना था। उनकी मां आनन्द देवी सुन्दर, सुशील और गुणवान महिला थीं। जब मुंशी प्रेमचंद आयु पंद्रह वर्ष थी, उस समय उनका विवाह हो गया। वह विवाह उनके सौतेले नाना ने करवाया था। सन् 1905 के अंतिम दिनों में मुंशी प्रेमचंद ने शिवरानी देवी से शादी कर ली थी। शिवरानी देवी बाल-विधवा थीं। यह कहा जाता है कि दूसरी शादी के पश्चात् इनके जीवन में परिस्थितियां में कुछ बदलाव आया और आर्थिक तंगी में कमी हुई। इनके लेखन कार्य में अधिक सजगता आने लगी । मुंशी प्रेमचन्द की पदोन्नति हुई तथा उन्हें स्कूलों में डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिए गया।  

शिक्षा:

गरीबी से लड़ते हुए प्रेमचंद ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक ही कर पाये। विधार्थी जीवन के प्रारंभ से ही मुंशी प्रेमचंद को गांव से दूर वाराणसी पढ़ने के लिए नंगे पांव जाना पड़ता था। इसी समय में इनके पिताजी का देहान्त हो गया। मुंशी प्रेमचंद को पढ़ाई का शौक था, आगे चलकर वह वकालत करना चाहते थे, मगर गरीबी के कारण उन्हें पढ़ाई छोड़ दी। मुंशी प्रेमचंद ने विधालय आने-जाने कि परेशानी से बचने के लिए एक वकील साहब के यहां ट्यूशन ले लिया और उसी के घर में एक मकान लेकर रहने लगे। इनको ट्यूशन का पांच रुपया दिया जाता था। उन पांच रुपयों में से तीन रुपए घर वालों को और दो रुपये से मुंशी प्रेमचंद अपनी जिन्दगी की गाड़ी को चलाते रहे। मुंशी प्रेमचन्द महीना भर तंगी और अभाव का जीवन जिते थे। जीवन की अनेक प्रतिकूल परिस्थितियों से लङने हुए प्रेमचन्द ने मैट्रिक पास कि। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य, पर्सियन और इतिहास विषयों से स्नातक द्वितीय श्रेणी में पास की। 

 कैरियर:

शुरुवाती टाईम में मुंशी प्रेमचंद ने ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया। कुछ समय ट्यूशन पढ़ाने के बाद वर्ष 1900 में उन्हें बहराइच के सरकारी विद्यालय में सहायक अध्यापक के पद के लिए प्रस्ताव प्राप्त हुआ। इसी समय प्रेमचंद ने कहानी लेखन भी आरम्भ कर दिया था।

कुछ समय बाद मुंशी प्रेमचंद को “नवाब राय” के नाम से भी बुलाया जाने लगा। मुंशी प्रेमचंद ने अपना पहला उपन्यास (Nove) “असरार-ए-मा अबिद” लिखा । अपने पहले उपन्यास में मुंशी प्रेमचंद ने मदिरों के पुजारियों के द्वारा किये जा रहे भ्रष्टाचार और महिलाओं के प्रति किये जाने वाले योंन शोषण से जुडी बातों को लोगों के सामने उजागर किया। मुंशी प्रेमचंद का पहला उपन्यास “असरार-ए-मा अबिद” बनारस एक उर्दू साप्ताहिक “आवाज़ ए खल्क” में श्रृखला के रूप में अक्टूबर 1903 से फरवरी 1905 तक प्रकशित किया गया।

मुंशी प्रेमचंद 1905 में कानपूर चले गए और वहां वे “ज़माना” मैगज़ीन के संपादक का कार्य किया, और दया नरेन निगम से मिले। एक अच्छा देशभक्त होने के कारण प्रेमचंद जी ने लोगों को भारत के स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरणा देती हुई कई महत्वपूर्ण कहानियाँ भी लिखीं।

मुंशी प्रेमचंद कि ये कहानियां सबसे पहले छोटी कहानियों के संग्रह के रूप में प्रकाशित किये गए जिनका टाइटल 1907 में “सोज़-ए-वतन” दिया गया। जब उनकी देश भक्ति व स्वतंत्रता को प्रेरित संग्रह के विषय में ब्रिटिश सरकार को पता चला तो उन्होंने अधिकारिक तौर पर इस पर उसे प्रतिबंध कर दिया और उसी के ही कारण धनपत राय को अपना नाम “नवाब राय” से बदलकर “प्रेमचंद” करना पडा।

सन् 1910 के अन्त तक वे उर्दू के एक प्रमुख लेखक बन गये थे और वर्ष 1914 में मुंशी प्रेमचंद ने हिन्दी भाषा में भी कहानियाँ लिखना शुरू कर दिया था। सन् 1916 में प्रेमचंद, गोरखपुर के एक साधारण विधालय में, सहायक अध्यापक बने। उसके बाद वे छोटी कहानियाँ और उपन्यास लिखने लगे। मुंशी प्रेमचंद ने अपना पहला बड़ा उपन्यास 1919 में “सेवा सदन” के नाम से लिखा।

सन् 1921 में प्रेमचंद एक मीटिंग में गए । वहा राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी ने “असहयोग आन्दोलन” में सहयोग देने के लिए लोगों से सरकारी नौकरियों को छोड़ने का किया। एक सच्चा देशभक्त होने के कारन उन्होंने  आसान पर सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। उस समय वो विधालयों के उपनिरीक्षक थे।

नौकरी छोड़कर वो वाराणसी चले गए और अपने भविष्य पर ज्यादा ध्यान देने लगे। सन् 1923 में उन्होंने अपना स्वयं का प्रिंटिंग प्रेस आरम्भ किया जिसका नाम उन्होंने “सरस्वती प्रेस” रखा गया था। वहां मुंशी प्रेमचंद जी ने दो मुख्य उपन्यास भी प्रकाशित किये जिसका नाम हैं “निर्मला”(1925) और “प्रतिज्ञा”(1927)। ये दोनों उपन्यास महिलाओं से जुदा हुआ था जैसे दहेज प्रथा और विधवा पुनर्विवाह जैसे सामाजिक मुद्दों से जुड़े हुए थे।

सन् 1930 में मुंशी प्रेमचंद ने एक साप्ताहिक पत्रिका “हंस” का प्रकाशन शुरू किया था जो भारत के आज़ादी के संगर्ष को प्रेरित करने के कारण इस पत्रिका का ज्यादा दिन तक प्रकाशन नहीं हो सका।

वर्ष 1931 में मुंशी प्रेमचंद ने मारवारी कॉलेज, कानपूर, में अध्यापक का कार्य किया, पर कॉलेज प्रशासन किसी विवाद के कारण मुंशी प्रेमचंद जी ने यह नौकरी छोड़ दी। मुंशी प्रेमचंद जी फिर से बनारस दोबारा लौटे आए और फिर “मर्यादा” पत्रिका में संपादक के पद पर कार्य किया और कुछ समय के लिए काशी विद्यापीठ में हेड मास्टर के पद पर भी कार्यरत रहे।

पैसों की कमी को दूर करने के लिए वे 1934 में मुंबई चले गए और प्रोडक्शन हाउस “अजंता सिनेटोने” में स्क्रिप्ट लेखन का काम करने लगे। मुंशी प्रेमचंद जी ने अपना पहला स्क्रिप्ट “मजदूर” फिल्म के लिए तैयार किया था। मुंशी प्रेमचंद जी ने ज्यादा दिन तक स्क्रिप्ट राईटर का कार्य नहीं किया और छोड़ दिया। परन्तु फिर भी “बोम्बे टाल्कीस” के उन्हें बहुत मनाने का प्रयास किया।

वर्ष 1935 में प्रेमचंद ने मुंबई को छोड़कर बनारस चले गए। वहां मुंशी प्रेमचंद जी ने 1936 में एक छोटी सी कहानी प्रकाशित की। जिसका नाम “कफ़न” था और उसी समय एक उपन्यास भी प्रकाशित किया था जिसका “गोदान” नाम था। यह प्रेमचंद के कुछ प्रमुख लेख थे जो उन्होंने सबसे अंत में लिखा था।

मुंशी प्रेमचंद साहित्यिक जीवन

लेखन कार्य:

मुंशी प्रेमचंद ने लेखन कार्य का आरम्भ ‘जमाना’ पत्रिका से किया था। शुरूआत समय में वे “धनपत राय” के नाम से लिख करते थे। मुंशी प्रेमचंद जी कि पहली कहानी सरस्वती पत्रिका में “सौत” नाम से प्रकाशित हुई। मुंशी प्रेमचंद जी कि अन्तिम कहानी 1936 में “कफन” नाम से प्रकाशित हुई थी। मुंशी प्रेमचंद जी ने उर्दू और हिंदी में विभिन्न उपन्यास लिखे थे। उनके द्वारा रचित गोदान, रंगमंच और प्रेमा आदि इनकी प्रमुख रचनाएँ थी। मुंशी प्रेमचंद जी ने “हंस” नामक मासिक पत्रिका का भी शुरू की थी। मुंशी प्रेमचंद ने 300 से अधिक कहानियाँ, एक दर्जन उपन्यास और कई लेख भी लिखे थे। मुंशी प्रेमचंद ने कई नाटक भी लिखे थे और उन्होंने मजदूर फिल्म की स्क्रिप्ट भी लिखी थी।

साहित्यिक जीवन:

मुंशी प्रेमचंद को आदर्शवादी, यथार्थवादी, साहित्यकार भी कहा जाता है। मुंशी प्रेमचंद के द्वारा लिखित उपन्यास “गोदान” उनका ही नहीं बल्कि सारे विश्व का सर्वोत्तम उपन्यास माना जाता है। गोदान उपन्यास में मुंशी प्रेमचंद ने जो कृषक का मर्मस्पर्शी वर्णन किया गया है उसके बारे में बिचाकर के आज भी मेरा दिल दहल उठता है। सूद-खोर बनिये, जागीरदार, सरकारी कर्मचारी सभी का भेद खोलकर मुंशी प्रेमचंद जी ने अपने साहित्य में लिखकर शोषित और दुखी लोगों के प्रवक्ता बन गये है।

“प्रेमचंद” धनपत राय  का साहित्यिक नाम था और बहुत समय बाद उन्होंने यह नाम अपनाया था। मुंशी प्रेमचंद का वास्तविक नाम ‘धनपत राय’ था। जब धनपत राय ने सरकारी नौकरी करते हुए कहानी लिखना आरम्भ किया, तब उन्होंने “नवाब राय” नाम रखा था। मुंशी प्रेमचंद जी के बहुत से मित्र उन्हें जीवन-भर नवाब के नाम से ही सम्बोधित करते रहे। जब ब्रिटिश सरकार ने मुंशी जी का पहला कहानी-संग्रह, ‘सोजे वतन’ जब्त किया, तब उन्हें नवाब राय नाम छोड़ना पड़ा। बाद में मुंशी जी का अधिकतर साहित्य प्रेमचंद के नाम से प्रकाशित हुआ। इसी काल में प्रेमचंद ने कथा-साहित्य बड़े मनोयोग से पढ़ना शुरू किया। एक तम्बाकू-विक्रेता की दुकान में उन्होंने कहानियों के अक्षय भण्डार, ‘तिलिस्मे होशरूबा’ का पाठ सुना। इस पौराणिक गाथा के लेखक फैजी बताए जाते हैं, जिन्होंने अकबर के मनोरंजन के लिए ये कथाएं लिखी थीं। एक पूरे वर्ष प्रेमचंद ये कहानियां सुनते रहे और इन्हें सुनकर उनकी कल्पना को बड़ी उत्तेजना मिली। कथा साहित्य की अन्य अमूल्य कृतियां भी प्रेमचंद ने पढ़ीं। इनमें ‘सरशार’ की कृतियां और रेनाल्ड की ‘लन्दन-रहस्य’ भी थी। 

साहित्य की विशेषताएं:

मुंशी प्रेमचंद जी की रचना-दृष्टि, विभिन्न साहित्य रूपों में, अभिव्यक्त हुई है। वो बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। मुंशी प्रेमचंद की रचनाओं में तत्कालीन समय का इतिहास बोलता है। मुंशी प्रेमचंद जी कि रचनाओं में जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया है। मुंशी जी की कृतियां भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियां हैं। मुंशी प्रेमचंद जी अपनी कहानियों से मानव-स्वभाव की आधारभूत महत्ता पर बल देते रहें हैं। 

 उपन्यास: कर्मभूमि, गोदान, निर्मला, गबन, प्रेमा, वरदान आदि |

कहानियां:

पंचपरमेश्वर, मुबारक बीमारी, नमक का दरोगा, पूस की रात, एक आंच की कसर, कौशल, ईदगाह, कफन, जुलूस, मंदिर और मस्जिद, कर्मों का फल, ईर्ष्या, सभ्यता का रहस्य आदि |

मुंशी प्रेमचंद की कृतियां भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियां रहीं हैं। उन्होंने कहानी, उपन्यास, समीक्षा, नाटक, संस्मरण, लेख, सम्पादकीय, आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की, किन्तु मुख्य रूप से मुंशी प्रेमचंद जी एक कथाकार हैं। मुंशी प्रेमचंद को अपने जीवन काल में ही उपन्यास सम्राट की पदवी प्राप्त हो गई थी। उन्होंने कुल 12 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियां, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल-पुस्तकें तथा हज़ारों पृष्ठों का लेख लिखे, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना भी की। जिस समय में प्रेमचंद ने कलम उठाई थी, उस समय उनके पीछे ऐसी कोई ठोस विरासत नहीं थी और न ही विचार और न ही प्रगतिशीलता का कोई मॉडल ही उनके सामने था सिवाय बांग्ला साहित्य के। उस समय बंकिम बाबू थे, शरतचंद्र थे और इसके अलावा टॉलस्टॉय जैसे रुसी साहित्यकार थे। लेकिन होते-होते उन्होंने गोदान जैसे कालजयी उपन्यास की रचना की जो कि एक आधुनिक क्लासिक माना जाता है। 

पुरस्कार:

उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के समान में भारतीय डाक विभाग की ओर से 31 जुलाई, 1980 को उनकी जन्मशती के मोके पर 30 पैसे मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया। गोरखपुर के जिस स्कूल में वे शिक्षक थे, वहां प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है। इसके बरामदे में एक भित्तिलेख है। वहाँ मुंशी जी से संबंधित वस्तुओं का एक संग्रहालय भी है। जहां उनकी एक प्रतिमा भी है। प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने प्रेमचंद घर में नाम से उनकी जीवनी लिखी और उनके व्यक्तित्व के उस हिस्से को उजागर किया है, जिससे लोग अनभिज्ञ थे। उनके ही बेटे अमृत राय ने ‘क़लम का सिपाही’ नाम से पिता की जीवनी लिखी है। उनकी सभी पुस्तकों के अंग्रेज़ी व उर्दू रूपांतर तो हुए ही हैं, चीनी, रूसी आदि अनेक विदेशी भाषाओं में उनकी कहानियां लोकप्रिय हुई हैं। 

निधन:

अपने जीवन के अंतिम समय में मुंशी प्रेमचंद जी भाषा की समस्या को सुलझाने लगे | उन्होंने हिंदी और उर्दू को एक साथ मिलाने के लिए बहुत भागदौड़ की और इसी भागदौड़ थकान ने इन्हें पहले से ज्यादा बीमार बना दिया | इनके पेट आन्तरिक भाग में घाव हो गए थे |

1936 में मुंशी जी बहुत अधिक बीमार हो गए थे और बिमारी के चलते ही उनका 8 अक्टूबर, 1936 को निधन हो गया था। उनकि मृत्यु के पश्चात उनकी कहानियाँ “मानसरोवर” नाम से 8 खंडो में प्रकाशित हुई थी। मुंशी प्रेमचंद जी का आखिरी उपन्यास मंगलसूत्र था जो कि अधुरा ही रह गया था उसे बाद में उनके बेटे ने पूरा किया था।

मुंशी प्रेमचंद उपसंहार

प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य के विकास में अमूल्य योगदान दिया हैं। उन्होंने जीवन और कलाखंड की सच्चाई को धरातल पर उतारा प्रकट कियाथा। उन्होंने आम बोलचाल की भाषा को काम में लिया था। उन्होंने हिंदी साहित्य को नई दिशा प्रदान की थी। मुंशी प्रेमचंद जी एक महान लेखक थे और हिंदी साहित्य के युग प्रवर्तक भी रहे है।

प्रेमचंद ने अपने जीवन के कई अदभूत कृतियां लिखी हैं। तब से लेकर आज तक हिन्दी साहित्य में ना ही उनके जैसा कोई हुआ है और ना ही कोई और होगा। अपने जीवन के अंतिम दिनों के एक वर्ष को छोड़कर उनका पूरा समय वाराणसी और लखनऊ में गुजरा, जहां उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया और अपना साहित्य-सृजन करते रहे। 8 अक्टूबर, 1936 को जलोदर रोग से उनका देहावसान हुआ। 

यह बहुत ही दुख की बात है कि हिंदी के ये महान लेखक उम्र भर आर्थिक समस्याओं से जुझता रहा था। पूरी उम्र कठिन परिश्रम करते रहने की वजह से उनका स्वास्थ्य गिरने लगा और सन् 1936 में इनका देहांत हो गया था। उनका साहित्य भारतीय समाज में जीवन का दर्पण माना जाता है। उनके साहित्यिक आदर्श बहुत बड़ा मूल्य रखते हैं।

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