चाणक्य नीति: आठवां अध्याय [ हिंदी में ] Chanakya Neeti Hindi

चाणक्य नीति: आठवां अध्याय

‘पंडित’ विष्णुगुप्त चाणक्य की विश्व प्रसिद नीति का आठवां भाग हिंदी में। चाणक्य नीति: आठवां अध्याय ( Chanakya Neeti The Eighth Chapter in Hindi  )


अधमा धनमिच्छन्ति धनमानौ च मध्यमाः।

उत्तमा मानमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम् ।।

  • अधम पुरुष धन की कामना करते हैं। मध्यम वर्ग के लोग धन और सम्मान दोनों की ही कामना करते हैं। उत्तम श्रेणी के लोगों को केवल सम्मान की ही भूख रहती है।

इक्षुरापः पयो मूलं ताम्बूलं फलमौषधम् ।

भक्षयित्वा अपि कर्तव्याः स्नानदानादिकाः क्रियाः ।।

  • गन्ना, जल, दूध, कन्द, पान, फल और दवाई का सेवन करने पर भी धार्मिक कार्य किए जा सकते हैं।

दीपो भक्षयते ध्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते।।

यदन्नं भक्षयते ये नित्यं जायते तादृशी प्रजा।।

  • दीप अन्धेरे को खाता है और काजल को पैदा करता है। इसी प्रकार प्राणी जैसा भी अन्न खाते हैं, उनके यहां वैसी ही संतान पैदा होती है।

चाण्डालानां सहस्रेषु सूरिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ।।

एको हि यवनः प्रोस्तो न नीचो यवनात्परः ।।

  • दुर्जन व्यक्ति को मनीषियों ने हजारों चाण्डालों के समान कहा है। क्योंकि ऐसा व्यक्ति हजारों चाण्डालों से भी कहीं अधिक विनाशक होता है। इसलिए दुर्जन व्यक्ति से सदैव किनारा करने में ही भलाई है।

वित्तं देहि गुणान्वितेषु मतिमन्नान्यत्र देहि क्वचितु,

प्राप्तं वारिनिधेर्जलं घनमुखे माधुर्ययुक्तं सदा।।

जीवान्स्थावरजङ्गमांश्च सकलान् संजीव्य भूमण्डलम्,

भूयः पश्य तदेव कोटिगुणितं गच्छन्तमम्भोनिधिम् ।।

  • बद्धिमान व्यक्ति सदैव गुणी व्यक्ति को धन व दानादि दे। क्योंकि गुणी को दिया गया दान व धन हजार गुना होकर दानकर्ता को मिलता है। अवगुणी को दिया गया दान व्यर्थ होता है। यह स्थिति वैसी ही है जैसे सागर के खारे जल को मेघ ग्रहण करके वर्षा द्वारा बरसाते हैं तो वही खारा जल चराचर जगत के जीवों के लिए लाभकारी हो जाता है। पुनः वह जल सागर में ही समा जाता है।

तैलाभ्यंगे चिताधूमे मैथुने क्षौरकर्मणि।

तावद् भवति चाण्डालो यावत्स्नानं न आचरेत् ।।

  • शरीर पर तेल की मालिश करने के पश्चात्, श्मशान में जाने पर, नारी के साथ सम्भोग करने और हजामत बनवाने के पश्चात पुरुष जब तक नहा नहीं लेता, तब तक वह चांडाल ही होता है।

अजीर्णे भेषजं वारि जीर्णे वारि बलप्रदम् ।।

भोजने चाऽमृतं वारि भोजनान्ते विषं भवेत् ।।

  • अपच में पानी पीना दवाई के समान है। खाना हजम होने पर पानी पीना शक्ति प्रदान करता है। खाने के मध्य पानी पीना अमृत के समान माना जाता है और खाना खाने के पश्चात् जल पीना जहर के बराबर है।

वृद्धकाले मृता भार्या बन्धुहस्ते गतं धनम् ।

भोजनं च पराधीनं तिस्रः पुंसां विडम्बनाः ।।

  • बुढ़ापे में पत्नी की मृत्यु हो जाना, अपने कमाए हुए धन का अन्य लोगों (सम्बन्धियों) के हाथ में चले जाना और खाने के लिए दूसरों की ओर देखना। यह तीनों इन्सान के लिए मृत्यु से कम नहीं हैं।

नाग्निहोत्रं विना वेदा न च दानं विना क्रिया।

न भावेन विना सिद्धिस्तस्माद् भावो हि कारणम् ।।

  • हवन (यज्ञ) के बिना वेद पढ़ना व्यर्थ होता है। दान-दक्षिणा के बिना यज्ञ व्यर्थ होता है। श्रद्धा और भक्ति के बिना किसी भी काम में सफलता नहीं मिलती। मन की भावना का सम्बन्ध ही सब सिद्धियों का मूल कारण है।

न देवो विद्यते काष्ठेन पाषाणेन मृण्मये।

भावे हि विद्यते देवस्तस्माद भावोहि कारणम् ।।

  • लकड़ी, पत्थर और धातु की भावना तथा श्रद्धा के साथ पूजा-पाठ करने से ही सिद्धि प्राप्त होती है और ईश्वर अपने भक्तों पर प्रसन्न होते हैं।

काष्ठपाषाणधातूनां कृत्वा भावेन सेवनम् ।।

श्रद्धया च तयां सिद्धस्तस्य विष्णोः प्रसीदतः ।।

  • ईश्वर इन लक्कड़-पत्थर और मिट्टी की मूर्तियों में बसा हुआ नहीं है। ईश्वर तो आपकी भावनाओं में बसा है। हां, जैसी आपकी भावना होगी वैसे ही आपको ईश्वर मिलेगा अर्थात् आप जहां पर भी अपनी भावना को प्रकट करोगे, वहीं पर आपको ईश्वर मिलेगा।

शान्तितुल्यं तपो नास्ति न सन्तोषात्परं सुखम् ।

न तृष्णायाः परो व्याधिर्न च धर्मो दयापरः ।।

  • शांति के बराबर कोई तपस्या नहीं। संतोष करने वाले सबसे अधिक सुखी होते हैं। तृष्णा से बढ़कर कोई रोग नहीं है और जो प्राणी दया करते हैं, वही सबसे अधिक धर्म का पालन करने वाले होते हैं।

क्रोधो वैवस्वतो राजा तृष्णा वैतरणी नदी।

विद्या कामदुधा धेनुः सन्तोषो नन्दनं वनम् ।।

  • क्रोध साक्षात धर्मराज का ही रूप है। तृष्णा वैतरणी नदी है। शिक्षा कामधेनु गौ है। धैर्य (संतोष) से बढ़कर कोई सुख नहीं है।

गुणो भूषयते रूपं शीलं भूषयते कुलम् ।

सिद्धिर्भूषयते विद्यां भोगो भूषयते धनम् ।।

  • जो लोग गुणवान हैं, ज्ञानी हैं, उनका रूप अतिसुन्दर लगता है। अथवा गुणों से ही रूप की शोभा है। वे शील कुल को चार चांद लगा देते हैं। सिद्धि करने से विद्या बढ़ती है और भोग धन को अलंकृत कर देता है।

निर्गुणस्य हतं रूपं दुःशीलस्य हतं कुलम् ।

असिद्धस्य हता विद्या अभोगेन हतं धनम् ।।

  • जिस आदमी में कोई गुण नहीं होता, उसकी सुन्दरता व्यर्थ होती है। शील रहित प्राणियों का कुल निन्दत होता है। अलौकिक शक्तियों के बिना मोक्ष की ओर न ले जाने वाली और जिस शिक्षा से बुद्धि प्राप्त न हो। वह सब बेकार हैं तथा भोग के बिना धन बेकार होता है।

शुचिर्भूमिगतं तोयं शुद्धा नारी पतिव्रता।

शुचिः क्षेमकरो राजा सन्तोषी ब्राह्मणः शुचिः ।।

  • धरती के अन्दर गया हुआ जल, पतिव्रता नारी, कल्याण करने वाला। राजा और हर हाल में संतुष्ट रहने वाला ब्राह्मण सदा शुद्ध और पवित्र तथा गुणवान माने जाते हैं।

असन्तुष्टाः द्विजा नष्टाः सन्तुष्टाश्च महीभृतः ।।

सलज्जा गणिका नष्टाः निर्लज्जाश्च कुलाङ्गनाः ।।

  • जिस ब्राह्मण को संतोष नहीं, संतोष करने वाले राजा और शर्म करने वाली वेश्याएं और भले व शरीफ वंश की लज्जाहीन नारियां, यह सब विनाश के लक्षण माने जाते हैं।

किं कुलेने विशालेन विद्याहीनेन देहिनाम् ।

दुष्कुलीनोऽपि विद्वांश्च देवैरपि सुपूज्यते ।।

  • अनपढ़ और बड़े कुल से क्या लाभ है। इसके विपरीत नीच कुल में पैदा होने वाला विद्वान भी देवताओं द्वारा पूजित होता है।

विद्वानः प्रशस्यते लोके विद्वानः गच्छति गौरवम् ।

विद्ययाः लभते सर्वं विद्या सर्वत्र पूज्यते ।।

  • इस दुनिया में केवल विद्वानों की ही प्रशंसा होती है, विद्वानों का ही सम्मान होता है। विद्या की ही शक्ति से धन-धान्य, इज्जत-मान आदि सब मिलते हैं। विद्या का ही सब जगह सम्मान होता है।

मांसभक्षैः सुरापानैमूर्खश्चाक्षर वर्जितैः ।

पशुभिः पुरुषाकारैर्भाराऽऽक्रान्ता च मेदिनी।।

  • शराब पीने वाले, मूर्ख, मांस भक्षण करने वाले, अनपढ़ भ्रष्टाचारी आदि। यह सब मानवरूपी पशु ही होते हैं। ऐसे लोगों के बोझ से पृथ्वी दबी रहती है। पृथ्वी पापी के बोझ से ही दु:खी होती है।

अन्नहीनो दहेदू राष्ट्र मन्त्रहीनश्च ऋत्विजः।।

यजमानं दानहीनो नास्ति यज्ञसमो रिपुः ।।

  • बिना अन्न के यज्ञ देश को, मन्त्रहीन यज्ञ पुरोहितों को, यज्ञ करवाकर दान न देने वाले यजमानों को यज्ञ भस्म करके रख देता है।
  1. चाणक्य नीति: प्रथम अध्याय
  2. चाणक्य नीति: दूसरा अध्याय
  3. चाणक्य नीति: तीसरा अध्याय
  4. चाणक्य नीति: चौथा अध्याय
  5. चाणक्य नीति: पांचवां अध्याय
  6. चाणक्य नीति: छठा अध्याय
  7. चाणक्य नीति: सातवां अध्याय

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